जयपुर। याद है मुझे वो दिन जब पहली बार कारसेवा में जाने का अवसर मिला। गिरिराज जी दादाभाई के नेतृत्व में हम एक ट्रेन से लगभग चार सौ कारसेवक अयोध्या जा रहे थे। गोपाल यादव, वदन शर्मा(पूर्व उपमहापौर), विष्णु सिंह नांगल आदि बड़े कार्यकर्ता भी साथ थे। दस- दस की टोली पर एक प्रमुख बनाया गया था। संयोग से मैं भी एक टोली का प्रमुख था।
पर्यावरण प्रेमी मोहनसिंह शेखावत ने विश्व संवाद केंद्र से ये संस्मरण साझा करते हुए बताया। आगे वे बताते हैं कि उस दिन पूरी ट्रेन को फूल मालाओं से सजाया हुआ था। रास्ते में भी सभी स्टेशनों व नगरों में कारसेवकों का शानदार स्वागत हुआ। तथा जगह- जगह पर खाने- पीने की व्यवस्था की गई थी। जब मथुरा रेलवे स्टेशन आया तो पूरी ट्रेन को प्रशासन द्वारा खाली करवाया गया और सभी कारसेवकों को नीचे उतारकर पुलिस की गाड़ियों में नरहोली थाने ले जाया गया। वहां सभी कारसेवकों को मैदान में बैठा दिया और चारों ओर पुलिस के जवान खड़े हो गए। नरहोली थाने के इंचार्ज यादव थे। हमें बाद में पता चला कि मुलायम सिंह यादव के रिश्तेदार थे। खैर ये एक अलग बात हैं।
इसके बाद इंचार्ज,डीवाईएसपी, एसपी और मजिस्ट्रेट ऐसे चार पांच प्रमुख प्रशासन के अधिकारियों ने मैदान में बैठे कारसेवकों से बारी-बारी से प्रश्न किए।
जैसे तुम कहां से आ रहे हो? तुम्हारा प्रमुख कौन है? तुम किसके कहने से आये हो? तुम्हारे राज्य का सीएम क्या खिलाता है? तुम्हारा आरएसएस प्रमुख कौन है? आदि अनेक प्रश्न कारसेवकों को पीटते जाते और पूछते जाते। एक कार्यकर्ता ने मेरा नाम ले लिया। ऐसे ही मेरे साथी कार्यकर्ता पवन शर्मा, विवेक कालिया आदि के नाम भी लिए गए। पहले तो हम चार पांच को खड़ा करके पीटा। फिर अलग से ले जाकर डंडे, सरिये व लोहे की रॉड से पीटा गया।
याद है मुझे वो रोंगटे खड़े कर देनी वाली बात भी, जब पवन शर्मा को करंट लगाया गया। ये वाकई कभी न भूलने वाला समय है। खैर, उसके बाद हम तीन को छोड़कर अन्य कारसेवकों को जेल में ले जाया गया। जहां हमें तीन दिन तक थाने में रखकर पत्थर, ईंट, मिट्टी आदि उठाने का कार्य करवाया गया। यहां प्रतिदिन थाना इंचार्ज व अन्य अधिकारियों द्वारा सुबह शाम खूब पीटा जाता था। पिटाई के निशान आज भी मेरे बाएं हाथ पर इस बात का साक्ष्य है।
शेखावत बताते हैं कि एक बात बड़ी रोचक थी हम सभी के लिए। दरअसल,इंचार्ज की धर्मपत्नी से हम प्रतिदिन थाने के पीछे आवास में आत्मीय भाव से मिलते थे और अपनी पीड़ा उनके साथ साझा करते थे। शायद वे भी उस परिस्थिति को भलीभांती समझी होंगी और यही वजह भी रही होगी कि उन्होंने हमें थाने से बाहर निकालने में हमारी सहायता की। इसके बाद हम जैसे- तैसे अयोध्या पहुंचे। आज राम मंदिर निर्माण का दृश्य हम सभी के सामने है। ये एक सुखद बात है।