कारसेवक सस्मरण श्रंखला- 3
जयपुर। 28 नवंबर 1992…। ये तारीख शायद ही कोई भूला हो। यह वो समय था जब राम मंदिर आंदोलन चरम पर था। देश में ”बच्चा—बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का” जैसे नारे गूंज रहे थे। देश की अलग—अलग जगहों से कारसेवक अयोध्या में एकत्रित हो रहे थे। ये संख्या हजारों में नहीं बल्कि लाखों में पहुंची थी। यह शब्द है भरतपुर के रहने वाले कवि ब्रजेन्द्र सोनी के।
विश्व संवाद केंद्र से अपना ये संस्मरण साझा करते हुए कवि ब्रजेन्द्र सोनी ने आगे बताया कि हम भी अपने कस्बे से 22 कारसेवक 28 नवंबर की सुबह अयोध्या पहुंचे थे। हमारे साथ सबसे बुजुर्ग कारसेवक के रूप में मदनमोहन मालवीय थे। जो उस समय लगभग 70 वर्ष के थे। हमारे साथ सबसे कम उम्र के किशन अरोडा भी थे।
याद आते हैं मुझे देवीसहाय और भगवान सिंह कुम्हारेडी जैसे कारसेवक भी, जिनके होने से ही वातावरण हास्यमय और हल्का हो जाता। इनके अलावा कृष्णा जो बाद में विद्यार्थी बाबा हो गए थे वे भी याद आ रहे हैं।
ये पहला अवसर था जब अयोध्या की भूमि को नमन कर रहा था। मेरे कुछ साथी भी थे जो पहली बार रामलला के दर्शन के लिए पंक्ति में लगे थे। जैसे—जैसे लाइन में आगे बढते जाते वैसे वैसे मन का संकल्प उग्र होकर नारे के रूप में पूरी ऊर्जा से दोहराते, ”रामलला हम आए हैं”, उससे दोगुनी आवाज आती ” मंदिर भव्य बनाने को “।
क्या क्षण था वो। आज भी आंखों में बसा हुआ है। कुछ ही देर में हम सभी रामलला के सामने थे। मन में अजीब संतोष का भाव था।
किंतु जैसे ही हम सबकी नजरें गर्भग्रह पर पड़ी तो हम सबका का मन वेदना से भर उठा।
मन में एक ही सवाल था, आखिर क्यों इस 100 करोड़ हिन्दुओं के देश में उसके ही आराध्य को विवादित बना दिया गया? जवाब में कुछ—कुछ आवाजें आती, अरे!अयोध्या राम की थी और राम की ही रहेगी, आज तक ऐसा कोई योद्धा नहीं जो इसे जीत सका हो। ये तो अपने ही लोग है जिनसे ये पराजित हो गई।
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कवि ब्रजेन्द्र कहते है कि वर्ष 1528 से लेकर 1990 तक 87 बार हमको लड़ाई लड़नी पड़ी। लाखों हिन्दुओं का बलिदान हो गया। वे आगे का संस्मरण कुछ यूं बताते है। उस दिन 5 दिसंबर था। अयोध्या के आसमान में हैलीकॉप्टर मंडरा रहे थे। चारों तरह पुलिस की सख्ती थी। हम अपनी टोली के साथ सुबह की चाय के लिए पंडित ज्वाला प्रसाद दुबे की दुकान पर थे। आज ज्वाला प्रसाद भी चुप थे। और हम भी कोई मजाक के मूढ में नहीं हैं। कारसेवक भी सड़कों पर कम ही दिखाई दे रहे थे। मुझे बेहद अच्छे से याद है वो दिन, जब हमें यह सूचना मिली कि सभी कारसेवक 6 तारीख को सरयू से रेती लाकर जन्मभूमि परिसर में एक निश्चित स्थान पर डालेंगे, यही कारसेवा होगी। ऐसा करने के बाद सभी अपने—अपने स्थानों की ओर लौट जाएंगे। इस सूचना ने कारसेवकों में गुस्सा भर दिया।
ये गुस्सा हर ओर था। इसका एक वाकया बताता हूं। इस सूचना के बाद अयोध्या की कुछ महिलाएं तो कारसेवकों को अपनी चूडियां तक भेंट करने लगी थी। उधर हमारी चाय भी बनकर तैयार हो गई थी। आज ज्वाला प्रसाद ने चाय को न कप से नापा न अपने बिस्कुटों के पैकेट की गिनती की। सीधे ट्रे में रख दी और कहा, आप जी भर खाओ कोई पैसा भी नही लेंगे, पर जिस काम के लिए आए हो वो तो करके जाओ। इसके बाद हमने भी अनमने ढंग से चाय नाश्ता किया।
रात्रि को खाने के बाद जन्मभूमि परिसर में ही एक छोटा सा मंच लगाया गया था। वहां से रात्रि को श्रीराम संकीर्तन और काव्यपाठ के लिए कवियों को मंच पर बुलाया गया। हालांकि ज्यादा लोग इकट्ठे नहीं हुए थे। तभी अचानक द्वार पर हलचल सी हुई और परिसर की बाउण्ड्री का मुख्य द्वार, जो दीवार के कुछ भाग के साथ धड़ाम से नीचे गिर गया। यह सब देखकर मुझे तो ऐसा ही लगा जैसे, हनुमान जी सीता मैया को खोजने के बाद माता से अशोक वाटिका को उजाडने की अनुमति मांग रहे हो।
तभी फटाफट प्रशासन भी हरकत में आया और तभी मंच पर विनय कटियार भी आ गए। उन्होंने मंच से ही ऐसा करने वालों को फटकार भी लगाई।
अब आई वो तारीख, यानी 6 दिसंबर। बड़े ही गंभीर भावों से कवि ब्रजेन्द्र बताते है, उस दिन सरयू तट पर भारी भीड होने वाली थी। हम सभी लगभग साढ़े छह बजे ही निकल लिए। सबको विशेष निर्देश दिया गया। सभी अपनी टोली के साथ ही रहें। बच्चों, बुजुर्गो और महिलाओं को भी सचेत किया गया कि वो अपना विशेष ध्यान रखें। आज के दिन हम सरयू में एक तरह से विशेष स्नान कर रहे थे। कईयों को सरयू का जल हाथ में लेकर संकल्प करते भी देखा। लगभग साढ़े आठ बजे तक स्नान के बाद एक बोरे में सरयू की रज को भरा उसे कांधे पर लादे चल दिए आगे की ओर। कारसेवा करने के रूप में यही आदेश था। हमने अक्षरश: उसका पालन करने का सोच ही रखा था।
जैसे—जैसे जन्मभूमि परिसर पास आ रहा था उस रज के बोरे का भार बढ़ता ही जा रहा था। अब राम जन्मभूमि परिसर लगभग 30 मीटर ही दूर रह गया था। हमारे सामने से साधुओं की एक टोली आ रही थी। उन्होंने कहा इस वजन को फेंकिये। जैसे हम में से हर कोई इसी पल का इंतजार कर रहा था।
और अंत में, ”मैं ठहरा छोटा सा कवि, जो चलचित्र मेरे सामने था उसका दर्शन बिना किसी दैवीय अनुकम्पा के संभव ही नहीं था। सूर्य ने अपने रथ के घोडों की लगाम जैसे खींच ली हो, वो भी स्थिर होकर इस दिव्य दर्शन का गवाह बन रहा था। अयोध्या असीम आनंद की समाधि में मग्न हो गई। जो सुरक्षा तंत्र उस गुलामी के प्रतीक की रक्षा में खुद गुलाम हो गया था वो भी आसमान की तरफ देखकर अपनी स्वतंत्रता का जश्न मना रहे थे। सरयू भी जैसे सूर्य के प्रकाश में नहाकर सुनहरी हो गई थी। अब अयोध्या के दोनों हाथ मुक्त थे। वो ताली बजा सकती थी। ऐसा लगा मानो श्री राम लौट आए। उनके साथ हनुमान, सुग्रीव, अंगद, नल नील और जामवंत सबने मिलकर दिवाली मनाई। हम श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास देने वाली कैकई और मंथरा को, अभी तक आदर्श नहीं मानते उन्हें गालियां देते हैं। फिर 492 वर्षों का प्रभु श्रीराम का यह वनवास हिंदू समाज कैसे सहता। हम उस अलौकिक क्षण के साक्षी बने। इस जन्म की यही सबसे बडी उपलब्धि है।”