नरेंद्र सहगल
हिन्दू धर्म के सिद्धांतों और अधिकांश रीतिरिवाजों में डॉ. हेडगेवार पूर्ण निष्ठा रखते हुए जेल में अपनी दिनचर्या का निर्वाह करते थे. वे यज्ञोपवीत पहनते थे. जेल के नियमों के अनुसार जब उन्हें इसे उतारने के लिए कहा गया तो उन्होंने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया ‘मैं इसे नहीं उतार सकता, यह मेरा धार्मिक हक है, इसमें दखलअंदाजी करने का आपका कोई अधिकार नहीं बनता’. उस समय जेल के पर्यवेक्षक एक आयरिश सज्जन थे, उन्होंने डॉक्टर जी की हिम्मत और दृढ़ निश्चय को देखकर यज्ञोपवीत पहने रहने की इजाजत दे दी. डॉक्टर जी के इस बगावती रुख का असर जेल में मौजूद अन्य सत्याग्रहियों पर भी पड़ा. सभी ने एक आवाज से जेल के मैनुअल के मुताबिक सुविधाओं के लिए संघर्ष छेड़ दिया. अंततः सभी सत्याग्रहियों को राजनीतिक कैदियों की मान्यता प्राप्त हो गई.
कारावास में देशभक्ति का प्रशिक्षण
डॉक्टर जी के साथ असहयोग आंदोलन में सहयोग करने वाले उनके कई युवा साथी इसी जेल में पहुंच गए. कांग्रेसी नेता बापूजी पाठक, रघुनाथ रामचंद्र, पं. राधामोहन गोकुल इत्यादि के साथ एक 20-22 वर्ष का देशभक्त मुस्लिम युवक काजी इमानुल्ला भी था जो खिलाफत आंदोलन में शिरकत करके एक वर्ष की कठोर सजा भुगतने के लिए आया था. इस कट्टरपंथी युवा विद्यार्थी द्वारा प्रातः शीघ्र उठकर जोर जोर से कुरान की आयतें पढ़ने से शेष राजनीतिक कैदियों की मीठी-मीठी नींद में खलल पड़ने लगा. जब सबके समझाने पर वह नहीं माना तो पं. राधा मोहन ने उससे भी ज्यादा ऊंचे स्वर में रामचरित मानस की चौपाइयां पढ़नी शुरु कर दीं. पंडित जी की ऊंची गलाफाड़ आवाज से इमानुल्ला खान को अपनी ही आयतें सुनना कठिन हो गया. तब कहीं जाकर वह शांत हुआ. इस मुस्लिम युवक की अपने धर्म के प्रति श्रद्धा और देश के प्रति भक्ति देखकर डॉक्टर जी मंद-मंद मुस्कुराते रहते थे. थोड़ी ही देर में वह भी डॉक्टर जी का मुरीद बन गया.
सभी राजनीतिक कैदियों को जेल में कई प्रकार के काम दिए गए. रस्सी बनाने, दाल पीसने और खेती बाड़ी के कामों के साथ पुस्तकों पर जिल्द चढ़ाने जैसे काम करवाए जाते थे. डॉक्टर जी को जिल्दों पर कागज चिपकाने और लुग्दी बनाने का काम दिया गया. जिससे उनके हाथों में छाले पड़ गए. इस प्रकार के सभी कष्टों एवं यातनाओं को वे देशभक्तिपूर्ण मस्ती के साथ झेलते रहे. इन यातनाओं को वे स्वतंत्रता सेनानी का सिलेबस मानते थे, जिसे पूरा किए बिना परीक्षा में उत्तीर्ण होना कठिन था. उस समय डॉक्टर जी मध्य प्रांत कांग्रेस की प्रांतीय समिति के जिम्मेदार सदस्य थे, अतः सम्माननीय सत्याग्रही नेता होते हुए उन्हें छोटे-मोटे झगड़ों से घृणा थी. जेल में मिलने वाले काम को भी वे पूरी तन्मयता के साथ पूरा करते रहे. काम करते हुए भी वे अन्य कैदियों के साथ स्वाधीनता, स्वधर्म तथा सत्याग्रह आदि विषयों पर चर्चा करते हुए सबका राजनीतिक प्रशिक्षण भी करते जाते थे. वे अपने कैदी साथियों को सशस्त्र क्रांति का महत्व समझाना भी नहीं भूलते थे. हिन्दू महापुरुषों के वीरव्रती जीवन की कथाएं सुनाकर वे सभी सत्याग्रहियों को निडर देशभक्त बनने का प्रशिक्षण देते रहे.
डॉक्टर जी की सलाह एवं प्रेरणा से सभी सत्याग्रहियों ने ‘जलियांवाला बाग दिवस’ मनाने का फैसला किया. जब सभी ने उस दिन हड़ताल करके कोई भी काम न करने का मन बनाया तो इमानुल्ला खाँ नहीं माना. वह 24 घंटे खिलाफत-खिलाफत ही चिल्लाता रहता था. अन्य किसी उत्सव अथवा सामूहिक गतिविधियों में उसकी जरा सी भी रुचि नहीं थी. परन्तु डॉक्टर जी के स्नेहिल व्यवहार का कायल होकर वह भी हड़ताल में शामिल हो गया. जेल के नियमों के अनुसार राजनीतिक तथा गैर राजनीतिक कैदियों को एक जैसा भोजन-कपड़े दिए जाते थे, परन्तु अमर शहीद यतीन्द्रनाथ सन्याल के 60 दिन के अनशन के बाद राजनीतिक नेताओं का एक अलग वर्ग बना दिया गया. जेल में रहते हुए भी डॉक्टर जी ने अपने मैत्रीपूर्ण व्यवहार से न केवल अपने साथी कैदियों को ही प्रभावित किया, अपितु नए जेल अधिकारी नीलकंठ राव जठार से भी प्रेम पूर्ण सम्बन्ध बना लिए.
असहयोग आंदोलन की वापसी क्यों ?
कारावास में एक वर्ष की सश्रम सजा काट रहे डॉक्टर हेडगेवार को जब अचानक यह समाचार मिला कि महात्मा गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध चल रहे देशव्यापी असहयोग आंदोलन को अचानक वापस लेने की घोषणा की है तो उनकी प्रतिक्रिया बहुत क्षुब्धकारी थी.जब यह आंदोलन अपने अंतिम चरण में था तो गांधी जी ने एक तरफा फैसला क्यों ले लिया? आंदोलन का नेतृत्व संभाल रहे नेताओं से सलाह किए बिना सत्याग्रह को समाप्त कर देने में कौन सी राजनीतिक बुद्धिमत्ता थी? कहीं ऐसा तो नहीं था कि कार्यकर्ताओं के अनुशासन एवं निष्ठा में कोई कमी आ गई थी? या फिर आंदोलनकारी नेताओं की क्षमता/पात्रता के अभाव ने आंदोलन की नैय्या डुबो दी थी? अहिंसा की एक आध घटना होने पर सारे आंदोलन को वापस लेकर गांधी जी को क्या प्राप्त हुआ?
गांधी जी की इच्छा एवं योजनानुसार असहयोग आंदोलन अहिंसक रास्ते पर चल रहा था. 05 फरवरी को ‘चौरी-चौरा’ उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों द्वारा सताए हुए लोगों की भीड़ ने स्थानीय पुलिस चौकी में आग लगाकर एक अफसर सहित 12 सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया. इस घटना के मात्र एक साप्ताह बाद ही गांधी जी ने आंदोलन को स्थगित कर दिया. महात्मा जी ने अपनी मानसिक स्थिति और तीखे अनुभवों को इन शब्दों में प्रकट किया था – ‘ईश्वर ने मुझे तीसरी बार सावधान किया है कि जिसके बल पर सामूहिक असहयोग समर्थनीय एवं न्यायोचित ठहराया जा सकता है, वह अहिंसा का वातावरण अभी भारत में नहीं है’. कहा जा सकता है कि डॉक्टर हेडगेवार के चिंतन, (अनुशासन, समर्पण, निरंतरता और ध्येयनिष्ठा ही संगठन का सशक्त आधार) को गांधी जी ने अपनी शाब्दिक व्यथा में स्वीकार कर लिया था.
कारावास में हुआ गंभीर चिंतन
डॉक्टर हेडगेवार की जेल से छुट्टी 12 जुलाई 1922 को होने के बाद स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भागीदारी की गति पहले से ज्यादा तेज हो गई. प्रत्येक परिस्थति में प्रसन्न रहते हुए अपने ध्येयपथ पर निरंतर बढ़ते रहना उनका स्वभाव था. कारावास से बाहर निकलते ही उनका वंदे मातरम् का उद्घोष और पुष्पवर्षा से स्वागत करने वालों में कांग्रेसी नेता डॉक्टर मुंजे, डॉक्टर परांजपे इत्यादि प्रमुख राजनीतिक एवं सामाजिक लोग शामिल थे. उनके घर के रास्ते में अनेक स्थानों पर स्वागत द्वारों की स्थापना की गई. नागपुर से प्रकाशित महाराष्ट्र साप्ताहिक पत्र ने लिखा – ‘डॉक्टर हेडगेवार की देशभक्ति, निस्वार्थवृत्ति तथा ध्येयनिष्ठा के संबंध में किसी के मन में भी शंका नहीं थी, परन्तु यह सब गुण स्वार्थत्याग की भट्टी में से निखरकर बाहर आ रहे थे. उनके इन गुणों का इसके आगे भी राष्ट्र कार्यों के लिए सौ गुना उपयोग हो यही हमारी कामना है’.
नागपुर के चिटणीस पार्क में सायंकाल स्वागत सभा का आयोजन किया गया. स्वागत सभा के प्रधान डॉ. ना.भा. खरे के स्वागत प्रस्ताव का सर्वसम्मत अनुमोदन होने के पश्चात कांग्रेसी नेता हकीम अजमल खाँ तथा राजगोपालाचारी इत्यादि नेताओं ने भी डॉक्टर जी का स्वागत किया. सभा के अंत में डॉक्टर जी ने बहुत थोड़े से नपे तुले शब्दों में अपनी सारगर्भित बात रखी – ‘देश के सम्मुख अपना ध्येय सबसे उत्तम व श्रेष्ठ ही रखना चाहिए. पूर्ण स्वतंत्रता से कम कोई भी लक्ष्य अपने सामने रखना उपयुक्त नहीं होगा. मार्ग कौन सा हो, इस विषय पर विचार करना उपयुक्त नहीं होगा. स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हुए यदि मृत्यु भी आई तो उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए. यह संघर्ष उच्च ध्येय पर दृष्टि तथा दिमाग ठंडा रखकर ही चलाना चाहिए’.
एक वर्ष की कठोर सजा भोगने के बाद डॉक्टर शारीरिक दृष्टि से तो आजाद जो चुके थे, परन्तु उनका मन अनेक प्रकार की चिंताओं तथा योजनाओं से मुक्त नहीं हो सका. अंग्रेजों के पाश से भारतमाता को स्वतंत्र कराने के लिए अब क्या किया जा सकता है, यही गंभीर चिंता डॉक्टर जी को परेशान कर रही थी. बालपन से लेकर अब तक स्वतंत्रता संग्राम के कई मोर्चों पर सफलता से लड़ते हुए, अब यह सेनापति अगले मोर्चे पर संघर्ष के लिए तैयार हो गया. कारावास में एक वर्ष तक किया गया विचार-मंथन उनके भविष्य में होने वाले गंभीर चिंतन का आधार हो गया.
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा स्तंभकार हैं)