नरेंद्र सहगल
प्रखर राष्ट्रभक्ति की सुदृढ़ मानसिकता के साथ डॉक्टर हेडगेवार ने ‘कांग्रेसी’ कहलाना भी स्वीकार कर लिया. नागपुर अधिवेशन में अपना रुतबा जमाने के बाद वे महात्मा गांधी द्वारा मार्गदर्शित असहयोग आंदोलन को सफल बनाने के लिए जी जान से जुट गए. गांधी जी के आह्वान पर सारा देश अहसयोग आंदोलन में हर प्रकार से शिरकत करने को तैयार हो गया. पूर्व में अनुशीलन समिति द्वारा संचालित सशस्त्र क्रांति और बाद में 1857 जैसे ही एक महाविप्लव की तैयारी में भागीदारी करने के बाद डॉक्टर हेडगेवार ने अब गांधी जी के नेतृत्व में संचालित हो रहे सत्याग्रहों के जरिये देश को स्वतंत्र कराने का मार्ग चुना.
अन्याय के विरुद्ध किसी भी तरीके से संघर्षरत रहना उनके कर्मठ व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा था. न्यायालयों और शिक्षण-संस्थाओं का बहिष्कार, राष्ट्रीय विद्यालयों का प्रारम्भ, सरकारी पदवियों की वापसी, घर-घर में चरखा चलाने का आवाहन, जलसे-जुलूस-प्रदर्शन और घेराव इत्यादि जोरदार अहिंसक अभियान पूरे युद्ध स्तर पर शुरु करने के उद्देश्य से प्रायः सभी कांग्रेसी नेताओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर डॉक्टर हेडगेवार ने अपने धुआंधार भाषण करने प्रारम्भ कर दिए. महात्मा गांधी ने इस आंदोलन की सफलता के निमित्त मुस्लिम समाज को भी जोड़ने के लिए खिलाफत आंदोलन का समर्थन करके इस असहयोग आंदोलन का हिस्सा बनाने की भरपूर कोशिश की (यह आंदोलन टर्की में खलीफा की पदवी से सम्बन्धित था). जिसका भारत और भारत के स्वतंत्रता संग्राम से कोई सम्बन्ध नहीं था.
असहयोग आंदोलन में अग्रणी भूमिका
डॉक्टर हेडगेवार यद्यपि गांधी जी से असहमत थे, तो भी उन्होंने समय की संवेदनशीलता को देखते हुए कहीं भी सार्वजनिक रूप से गांधी जी की आलोचना नहीं की. डॉक्टर जी नहीं चाहते थे कि उस आंदोलन को किसी भी रूप से कोई नुकसान पहुंचे, परन्तु अपनी बात को ठीक जगह कहने के लिए भी हिचकिचाते नहीं थे. उन्होंने अपनी बात महात्मा गांधी जी के आगे रखते हुए कहा – ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता इस शब्द के प्रचार में आने के पहले ही अनेक मुसलमान नेता राष्ट्र के प्रति अपने प्रेम के कारण लोकमान्य तिलक के नेतृत्व में काम करते थे. डॉक्टर अंसारी और हकीम अजमल खाँ आदि अनेक मुस्लिम नेता स्वतंत्रता संग्राम में संघर्षरत हैं, परन्तु इस नए प्रयोग से तो मुझे आशंका है कि मुसलमानों में एकता के स्थान पर परायेपन की भावना बढ़ेगी’. सम्भवतः गांधी जी इस युवा स्वतंत्रता सेनानी के साथ ज्यादा चर्चा करने के मूढ़ में नहीं थे.
गांधी जी के इस निराशाजनक व्यवहार के बाद भी डॉक्टर हेडगेवार असहयोग आंदोलन में बिना रुके और विश्राम किये लगे रहे. डॉक्टर जी के तीखे प्रचार और धुंआधार भाषणों से घबराकर सरकार ने उनके भाषणों पर एक महीने का प्रतिबंध लगा दिया. नागपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी सिरिल जेम्स ने धारा 144 के अंतर्गत 23 फरवरी 1921 को एक आदेश जारी कर दिया. इस आदेश के अनुसार एक माह तक किसी भी सार्वजनिक स्थान पर सभा करने और भाषण देने की मनाही कर दी गई. परन्तु डॉक्टर हेडगेवार ने अपना प्रचार जारी रखा. अलबत्ता उन्होंने अपने प्रचारात्मक अभियान को पहले से भी ज्यादा तेज कर दिया.
वीरव्रती हेडगेवार पर राजद्रोह का मुकदमा
सरकार तो किसी भी प्रकार से डॉक्टर हेडगेवार को कानून के शिकंजे में जकड़ना चाहती थी. अतः उनके दो भाषणों को आपत्तिजनक करार देकर डॉक्टर जी पर मई 1921 में राजद्रोह का मुकदमा दायर कर दिया गया. डॉक्टर हेडगेवार ने इस मुकदमे की पैरवी स्वयं करते हुए अदालत में बेबाक बयान दिया – ‘हिन्दुस्थान में न्यायाधिष्ठित कोई शासन नहीं है, हमारे यहां आज जो कुछ है वह तो पाश्वी शक्ति के बल पर लादा हुआ भय और आतंक का साम्राज्य है, कानून उसका दास तथा न्यायालय उसके खिलौने मात्र हैं. मैंने अपने देश के बांधवों में अपनी दीनहीन मातृभूमि के प्रति उत्कट भक्तिभाव जगाने का प्रयत्न किया है. मैंने जो कहा वह अपने देशवासियों के अधिकार तथा स्वातंत्र्य की प्रस्थापना के लिए कहा. अतः मैं अपने प्रत्येक शब्द का दायित्व लेने के लिए तैयार हूं और कहता हूं कि यह सब न्यायोचित है’. इन जलते हुए अंगारों के पड़ते ही मेजिस्ट्रेट साहब बोल उठे – This statement is more sedicius than his speech अर्थात् इनके मूल भाषण की अपेक्षा तो यह प्रतिवाद करने वाला वक्तव्य अधिक राजद्रोहपूर्ण है.
मेजिस्ट्रेट की इस बात को सुनकर डॉक्टर हेडगेवार ने पुनः ऊंची आवाज में कहा -‘हमें पूर्ण स्वातंत्र्य चाहिए, वह लिये बिना हम चुप नहीं बैठेंगे, हम अपने ही देश में स्वतंत्रता के साथ रहने की इच्छा करें, क्या यह नीति और विधि के विरुद्ध है? ’इस पर न्यायाधीश समेली ने निर्णय दिया – ‘आपके भाषण राजद्रोहपूर्ण हैं, इसलिए एक वर्ष तक आप राजद्रोही भाषण नहीं करेंगे, इसका आश्वासन देते हुए आप एक-एक हजार की दो जमानतें तथा एक हजार रुपये का मुचलका लिखकर दें’. यह निर्णय होते ही डॉक्टर जी इस सम्बन्ध में अपना मनोगत वक्तव्य रखते हुए पहले से भी ज्यादा जोर से बोले – ‘आप कुछ भी निर्णय दीजिए मैं निर्दोष हूं, इस सम्बन्ध में मेरी आत्मा मुझको बता रही है. सरकार की दुष्ट नीति के कारण पहले ही जलती आग में यह दमन नीति तेल का काम कर रही है, विदेशी राज्यसत्ता को अपने पाप के प्रायश्चित का अवसर शीघ्र ही आएगा. ऐसा मुझे विश्वास है. सर्वसाक्षी परमेश्वर के न्याय पर मुझे पूरा भरोसा है, अतः यह जमानत मुझे स्वीकार नहीं’.
एक वर्ष का कठोर कारावास
डॉक्टर जी का कथन पूरा होते ही न्यायाधीश समेली ने उनके लिए एक वर्ष के सश्रम कारावास के दंड की घोषणा कर दी. उस समय डॉक्टर जी ने हंसते हुए दंड का स्वागत किया तथा कारागृह जाने के लिए तैयार हो गए. अदालत से बाहर आते ही उनके चारों ओर मित्रों और आम जनता की भीड़ इकट्ठा हो गई तथा नगर कांग्रेस की ओर से श्री गोखले ने माला पहनाई. अन्य कांग्रेसी नेताओं ने भी पुष्प मालाएं समर्पित कर उन्हें विदाई दी. इस पर डॉक्टर हेडगेवार ने धन्यवाद स्वरूप छोटा सा भाषण किया – ‘देश कार्य करते हुए जेल तो क्या यदि कालेपानी जाने अथवा फांसी के तख्ते पर लटकने पर भी हमें तैयार रहना चाहिए. परन्तु जेल में जाने से ही स्वातंत्र्य प्राप्ति हो जाएगी, इस प्रकार का भ्रम मत पालिए, जेल में न जाते हुए बाहर भी बहुत सा देश का काम किया जा सकता है, इसको ध्यान में रखिये. मैं एक वर्ष में वापस आऊंगा, तब तक देश के हालचाल का मुझे पता नहीं लगेगा. परन्तु हिन्दुस्थान को पूर्ण स्वतंत्र कराने का आंदोलन और भी तेज होगा, ऐसा मुझे विश्वास है. हिन्दुस्थान को अब विदेशी सत्ता के अधीन रहना नहीं है, उसे अब गुलामी में नहीं रखा जा सकता. आप सबका हृदय से आभार मानकर आप से एक वर्ष के लिए आज्ञा लेता हूं’. ऐसा कहते हुए डॉक्टर जी ने हाथ जोड़कर सबको नमस्कार किया, तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वंदे मातरम की घोषणा हुई. वंदेमातरम् के उद्घोष होने लगे.
कांग्रेस के राष्ट्रवादी नेताओं, अपने पूर्व के क्रांतिकारी साथियों तथा समर्थकों की अपार भीड़ द्वारा लगाए गए ‘भारत माता की जय’-‘वंदे मातरम’ के उद्घोषों के बीच डॉक्टर हेडगेवार 19 अगस्त 1921 को नागपुर की जेल में पहुंच गए. उसी दिन सायंकाल को एक अभिनंदन सभा का आयोजन करके अनेक कांग्रेसी नेताओं ने अत्यंत हृदयस्पर्शी भाषण देकर डॉक्टर जी के साहस एवं निडरता की खुले मन से तारीफ की. इन नेताओं में डॉक्टर मुंजे, नारायण राव केलकर, श्री हरकरे तथा विश्वनाथ राव केलकर शामिल थे. इन सभी नेताओं ने डॉक्टर हेडगेवार की पूर्ण स्वतंत्रता पर निष्ठा की मुक्त कंठ से प्रशंसा की तथा लोगों को इस पथ पर आगे बढ़कर संघर्ष करने की अपील की.
असहयोग आंदोलन को बल मिला
डॉक्टर जी के अभिन्न निकटवर्ती मित्र तथा साप्ताहिक महाराष्ट्र के मुख्य संपादक गोपालराव ओगले ने 24 अगस्त 1921 के सम्पादकीय में लिखा – ‘जानबूझकर सश्रम कारावास के कष्टों को सहर्ष स्वीकार करने वाले डॉक्टर हेडगेवार नागपुर की दयोन्मुख पीढ़ी का नेतृत्व करने एवं अपने विशुद्ध पूर्ण स्वातंत्र्य के ध्येय का प्रतिपादन करने के लिए शीघ्र ही जेल से वापस आएंगे’. डॉक्टर हेडगेवार को दी गई सश्रम कारावास की सजा नागपुर समेत पूरे मध्य प्रांत में आग की तरह फैलती गई. अनेक स्थानों पर विशेष सभाओं का आयोजन होने लगा. डॉक्टर जी का अभिनन्दन, सरकार की निंदा और बहिष्कार इत्यादि कार्यक्रम असहयोग आंदोलन का एक महत्वपूर्ण भाग बनते गए. जिस तरह डॉक्टर हेडगेवार के भाषणों से अहसयोग आंदोलन को बल मिला था, ठीक उसी तरह का उत्साह उनकी सजा से भी चारों ओर फैल गया.
महात्मा गांधी जी द्वारा की गई घोषणा – ‘एक वर्ष में स्वराज्य’ पर सारा देश मुग्ध हो गया. आंदोलन जोर पकड़ता गया, डॉक्टर साहब के अनेक युवा साथियों के जत्थे सरकारी निषेधाज्ञा करके सड़कों पर उतर आए. इन युवा क्रांतिकारियों के उत्साह से सरकार के होश उड़ गए. महात्मा गांधी जी ने देशवासियों से हिंसा न फैलाने की अपील की. इस अपील को शिरोधार्य करते हुए डॉक्टर हेडगेवार जैसे महाक्रांति के योद्धाओं ने भी अहिंसा के मार्ग को अपनाकर एक वर्ष में स्वराज्य के उद्घोष को घर-घर में पहुंचा दिया. भले ही भविष्यदृष्टा डॉक्टर साहब और उनके युवा क्रांतिकारी इस घोषणा से इत्तफाक न रखते हों तो भी उन्होंने इस आंदोलन को सफलता की बुलंदियों तक पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. उल्लेखनीय है कि डॉक्टर हेडगेवार के जेल में जाने के बाद भी उनके हजारों युवा क्रांतिकारी साथियों ने असहयोग आंदोलन में भाग लेकर स्वतंत्रता की ज्योति जलाए रखी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा स्तंभ लेखक हैं)