नरेंद्र सहगल
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, अनुशीलन समिति समेत कई क्रांतिकारी दलों, विभिन्न संस्थाओं, लगभग 30 छोटी बड़ी परिषदों/मंडलों, समाचार पत्रों, आंदोलनों, सत्याग्रहों और व्यायाम शालाओं की गतिविधियों में सक्रिय भूमिका निभाने तथा एक वर्ष की सश्रम जेल यात्रा करने के पश्चात डॉक्टर हेडगेवार ने एक ऐतिहासिक शक्ति सम्पन्न और आत्मनिर्भर हिन्दू संगठन बनाने के निश्चय को व्यवहार में परिणत करने का निर्णय ले लिया.विदेशियों के प्रतिकार के लिए स्वदेशियों का संगठन. विक्रमी सम्वत 1982 की विजयादशमी 27 सितम्बर1925 को डॉक्टर जी ने अपने घर पर विश्वस्त सहयोगियों को बुलाया. इस एक ही बैठक में थोड़ा विचार करते हुए घोषणा कर दी ‘हम लोग आज से संघ प्रारम्भ कर रहे हैं’. अतः यह कहने में कोई भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यही बैठक आज के अति विशाल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रथम शाखा/बैठक थी.
वैभवशाली राष्ट्र के लिए संघ की स्थापना
सभी के विचार सुनने के पश्चात डॉक्टर जी ने बहुत ही नपे तुले और संक्षिप्त भाषण में स्पष्ट किया कि संघ प्रारम्भ करने का अर्थ है कि हम सब शारीरिक, सैनिक तथा राजकीय तीनों प्रकार की शिक्षा लें और दूसरों को देना प्रारम्भ करें.डॉक्टर जी द्वारा कही गई इस छोटी सी पंक्ति में अर्थ का सागर समाया हुआ है.अर्थात् अन्यों को सिखाने और करवाने से पहले स्वयं सीखें और करें. संगठन के निर्णय की घोषणा के पहले और बाद में डॉक्टर हेडगेवार ने अन्य किसी भी संस्था अथवा दल का किसी भी प्रकार का कोई अनुसरण नहीं किया अर्थात् संस्था का नाम, संविधान, झंडा, कार्यालय, धन की व्यवस्था, कोई रजिस्टर, प्रधान, सचिव और रसीद/पुस्तक इत्यादि कुछ नहीं,बस कमरे में संघ बना और मैदान में काम शुरु. राष्ट्रोत्थान के इस पवित्र कार्य को डॉक्टर जी ने विजयादशमी अर्थात् ‘सीमोल्लंघन’ जैसे राष्ट्रीय दिवस पर प्रारम्भ करके ब्रिटिश साम्राज्यवाद को एक वीरोचित चुनौती दे दी.अपनेविभेदों,स्वार्थों,दुर्बलताओं,अकर्मण्यताओं,कुंठाओं,और सभी प्रकार के अंधविश्वासों की सीमाओं को तोड़कर हिन्दू समाज अब दिग्विजयी सामर्थ्य को प्राप्त करेगा और विदेशियों/विधर्मियों, दुष्ट शासकों तथा घर के भेदियों का सर्वनाश होकर रहेगा.
सीमोल्लंघन के वीरव्रती दिवस विजयादशमी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बीजारोपण का यही सार्थक अर्थ है.प्रारम्भ में संघ के स्वयंसेवकों को यही कहा जाता था कि किसी भी व्यायामशाला में जाकर व्यायाम करें, तत्पश्चात प्रत्येक रविवार को सभी स्वयंसेवकों को एक मैदान में एकत्र करके सेवानिवृत सैनिक अधिकारी मार्तण्डराव जोग के द्वारा सैनिक प्रशिक्षण शुरु कर दिया गया. बाद में सप्ताह में दो दिन के वर्ग का आयोजन शुरु हो गया. जिसमें डॉक्टर जी तथा अन्य गणमान्य लोगों के भाषण होते थे. यही वर्ग तथा भाषण कालांतर में ‘शिक्षा वर्ग’ और ‘बौद्धिक वर्ग’ के रूप मेंविकसित हो गए.17 अप्रैल 1926 को डॉक्टर जी के घर पर ही एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें 26 लोग थे.
इसी बैठक में संगठन का नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ रख दिया गया. इस बैठक में डॉक्टर जी ने विचार प्रकट किए‘राष्ट्र की सर्वांगीण स्वतंत्रता और उन्नति का मार्ग शक्तिशाली संगठित हिन्दू समाज ही है,परस्पर विरोधी परम्परा, संस्कृति तथा भावना वाले लोगों की खींचतान करके बंधी हुई गठरी राष्ट्र नहीं हो सकता.धर्म, संस्कृति, देश, भाषा तथा इतिहास के संदर्भ में ‘हम सब एक हैं’ यह ज्ञान तथा ‘एक रहेंगे’ इसका निश्चय होकर जो अभूतपूर्वआत्मीयताएवं तन्मयता हृदय में उत्पन्न होती है, वही राष्ट्र का अधिष्ठान है’.
डॉक्टर जी अपने भाषणों में प्रायः कहा करते थे – ‘समाज के समक्ष उपस्थित अनेक भीषण प्रश्नों को यदि सदा के लिए मिटाना है तो उसके लिए प्रयत्नों के साथ-साथ कई पीढ़ियों तक राष्ट्रीयत्व की शिक्षा देकर देशहित के लिए जीवनभर अखंड रूप से जागृत रहने वाले नागरिक सम्पूर्ण देश में भारी संख्या में खड़े करने होंगे. तथा इस परम्परा को निरंतर बनाए रखने की व्यवस्था भी करनी होगी’.अब डॉक्टर जी ने संघ के स्वयंसेवकों में निरंतर चलने वाली संघ/राष्ट्र निष्ठा निर्माण करने हेतु शारीरिक/बौद्धिक कार्यक्रमों की संतुलित व्यवस्था करना प्रारम्भ कर दिया.मार्च 1928 में नागपुर के निकट एक पहाड़ी पर स्वयंसेवकों को एकत्र करके भगवा ध्वज के समक्ष प्रतिज्ञा का कार्यक्रम सम्पन्न किया गया.इस प्रतिज्ञा कार्यक्रम में डॉक्टर हेडगेवार ने संघ का ध्येय स्पष्ट करते हुए जो संक्षिप्त भाषण दिया, उससे उन लोगों का मुंह बंद हो जाना चाहिए जो आए दिन कहते हैं कि स्वतंत्रता-संग्राम के समय डॉक्टर हेडगेवार और संघ कहां थे?
डॉक्टर जी ने अपने भाषण में कहा था – ‘हमारा उद्देश्य हिन्दू राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता है,संघ का निर्माण इसी महान उद्देश्य के लिए हुआ है’.प्रतिज्ञा में स्वयंसेवक भगवा ध्वज के सामने प्रणाम की स्थिति में ‘दक्ष’ में खड़े होकर प्रण लेते थे – ‘मैं अपने राष्ट्र की स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए तन-मन-धन पूर्वक आजन्म और प्रमाणिकता से प्रयत्नरत रहने का संकल्प लेता हूं’.
कार्य विस्तार हेतु युवा प्रचारक
संघ के कार्य का विस्तार देश के अन्य प्रांतों में होना चाहिए, इस महान मंतव्य के साथ डॉक्टर जी ने युवा स्वयंसेवकों को अन्य प्रांतों/विश्वविद्यालयों में अध्ययन हेतु जाने के लिए प्रेरित किया.अनेक युवा कार्यकर्ता,उत्तर प्रदेश,बंगाल, पंजाब, दिल्ली जैसे प्रमुख प्रांतों में विद्यार्थी प्रचारक के रूप में जाने लगे.इन विद्यार्थी प्रचारकों ने अनेक प्रकार की विकटताओं का सहर्ष सामना करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आधार मजबूत करने हेतु अपने जीवन झोंक दिए.ना स्थानीय भाषा का ज्ञान, ना जेब में पैसे, ना रात्रि विश्राम का स्थान, ना भोजन-नाश्ते की कोई नियमित व्यवस्था और ना ही स्थानीय लोगों से परिचय. न जाने कितने कष्टों के साथ इन युवा प्रचारकों ने संघ के काम की शुरुआत सफलता पूर्वक कर दिखाई.
यहां पर यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि, सशस्त्र क्रांति, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, आर्यसमाज, हिन्दू महासभा एवं पचासों सामाजिक/धार्मिक संस्थाओं में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुए डॉक्टर हेडगेवार ने अपने मित्रों, सहायकों और जानकारों की एक विशाल श्रृंखला बना ली थी. डॉक्टर जी ने अपने इन्हीं घनिष्ट मित्रों के नाम पत्र देकर युवा प्रचारकों को देश के विभिन्न भागों में भेजने की अद्भुत पद्धति प्रारम्भ की. ये युवा प्रचारक किसी भगवाधारी सन्यासी से कम नहीं थे. स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द,स्वामीरामतीर्थ एवं महर्षि अरविंद जैसे संतों तथा वीर सावरकर जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने ऐसे ही युवा क्रांतिकारी सन्यासियों की कल्पना की थी, जिसे डॉक्टर हेडगेवार ने साक्षात व्यवहार में कर के दिखा दिया.
अपने घर/परिवार छोड़कर और जीवन भर अविवाहित रहकर राष्ट्र के लिए समर्पित होने वाले इन युवा प्रचारकों को प्रेरणा देने और उनका मनोबल बनाए रखने के लिए डॉक्टर जी समय-समय पर उन्हें पत्र भी लिखते रहते थे.विभिन्न प्रांतों में संघ कार्य का विस्तार कर रहे प्रचारकों के लिए लिखे यह पत्र श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए गीता वचनों के जैसे ही थे.जिस तरह शिथिल पड़ते जा रहे अर्जुन को अधर्म एवं असत्य के विनाश के लिए तैयार करके श्रीकृष्ण ने युद्ध की प्रेरणा दी थी, ऐसे ही डॉक्टर हेडगेवार ने युवा प्रचारकों को भारत, भारतीय राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की रक्षा हेतु साक्षात कर्मक्षेत्र में उतरने के लिए प्रेरित किया था.
इन पत्रों में ‘हिम्मत रखो’, ‘कष्टों को वरदान समझकर सहन करो’, ‘हिन्दू संगठन आज के भारत की परम आवश्यकता है’, ‘हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा,? ‘अपना कार्य ईश्वरीय कार्य है’, ‘निराश नहीं होना’, ‘अपने स्वभाव पर नियंत्रण रखते हुए सभी के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करो’, इस प्रकार के पत्रों में एक ऐसा विश्वास, आस्था और सहज मार्गदर्शन होता था कि युवा प्रचारकों को स्थानीय स्तर पर आने वाली कष्टसाध्य परिस्थितियों पर विजय पाने में कठिनाई नहीं आती थी. इन विद्यार्थी प्रचारकों नेअनेक प्रकार की कठिनाइयों के बीच अपने स्थानों पर संघ का काम न केवल खड़ा किया, अपितु वहां से भी अनेक युवाओं को राष्ट्रभक्ति में संस्कारित करके आगे जिला एवं तहसील केन्द्रों तक भेजना प्रारम्भ कर दिया.अतः बहुत शीघ्र हो जाने वाले कार्य-विस्तार के पीछे कोई जादू की छड़ी नहीं थी,डॉक्टर जी का तपस्वी जीवन ही कार्य का आधार बनता चला गया.
सर्वस्व त्याग करने की प्रेरणा
इतना सब करते हुए भी डॉक्टर हेडगेवार ने कांग्रेस द्वारा संचालित आंदोलनात्मक गतिविधियों में भाग लेने का क्रम नहीं छोड़ा,बल्कि उन्होंने स्वयंसेवकों को इन सभी गतिविधियों में भाग लेने का आदेश भी दिए.डॉक्टर हेडगेवार के अनुसार देश की स्वतंत्रता के लिए किया जा रहा प्रत्येक संघर्ष राष्ट्र के अस्तित्व और स्वाभिमान की लड़ाई है. भारत के प्रत्येक नागरिक का फर्ज है कि वे इसमें भाग लें. उनका स्पष्ट विचार था कि देश में सक्रिय सभी संगठनों, दलों एवं संस्थाओं को अपने तत्कालिक सैद्धांतिक मतभेदों को भुलाकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेना चाहिए.
वास्तव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना ही स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के संगठन के रूप में हुई थी.परन्तु राजनीतिक स्वतंत्रता के आगे बढ़कर डॉक्टर हेडगेवार का लक्ष्य भारत को एक मजबूत और वैभवशाली राष्ट्र के रूप में स्थापित करना था. यह काम स्वतंत्रता प्राप्ति के बिना सम्भव नहीं था.
1929 में वर्धा में सम्पन्न हुए संघ प्रशिक्षण शिविर में डॉक्टर हेडगेवार ने स्वयंसेवकों तथा नागरिकों की एक सभा में जोरदार शब्दों में कहा था – ‘ब्रिटेन की सरकार ने अनेक बार भारत को स्वतंत्र करने काआश्वासन दिया, परन्तु वह झूठा साबित हुआ, अब यह साफ हो गया है कि भारत अपने बल पर स्वतंत्रता प्राप्त करेगा.इसी शिविर में स्पष्ट घोषणा की गई कि संघ का अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सभी स्वयंसेवक अपना सर्वस्व त्याग करने के लिए तैयार रहें.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा स्तंभकार हैं)