नारद के कारण ही बढ़ा पत्रकारिता पर विश्वास : डॉ रामदीन त्यागी

भोपाल , 7 मई । देव ऋषि नारद हमेशा समाज हित की जानकारियों को प्रेषित करने में अग्रणी रहे । उन्हें भगवान का मन भी कहा गया है। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गों में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है।उनके संवाद कौशल ने पत्रकारिता का विश्वास बढ़ाया और यही कारण है कि आज पत्रकारिता पर लोगों का विश्वास कायम है।

श्रीमद् भगवद्गीता के दशम अध्याय के २६वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है देवर्षियों में मैं नारद हूं। वायुपुराण में देवर्षि के पद और लक्षण का वर्णन है- देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले ऋषिगण देवर्षि नाम से जाने जाते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं का साक्षात्कार करके स्वयं में सम्बद्ध, कठोर तपस्या से लोकविख्यात, गर्भावस्था में ही अज्ञान रूपी अंधकार के नष्ट हो जाने से जिनमें ज्ञान का प्रकाश हो चुका है, ऐसे मंत्रवेत्ता तथा अपने ऐश्वर्य (सिद्धियों) के बल से सब लोकों में सर्वत्र पहुँचने में सक्षम, मंत्रणा हेतु मनीषियों से घिरे हुए देवता, द्विज और नृपदेवर्षि कहे जाते हैं। जनसाधारण देवर्षि के रूप में केवल नारदजी को ही जानता है। उनकी जैसी प्रसिद्धि किसी और को नहीं मिली। वायुपुराण में बताए गए देवर्षि के सारे लक्षण नारदजी में पूर्णतः घटित होते हैं। सम्पूर्ण भारत में ब्रह्मा, विष्णु, महेश, राम, कृष्ण और अनेक देवी-देवताओं की एक समान जानकारी हर भारतवंशी को होने के पीछे नारदजी की पत्रकारिता एवं सुसंवादिता ही मुख्य है। नारद की छवि किसी जाति, वर्ग, समुदाय, सम्प्रदाय से नहीं जुड़ी थी। वे मनुष्य थे या देवता, यह कहना कठिन है। कहीं-कहीं वे गंधर्व के रूप में भी प्रकट होते हैं। परन्तु उस काल में वे देवताओं, मानवों और दानवों सभी के मित्र-हितैषी थे और उनको कुछ सिद्धियां एवं अधिकार प्राप्त थे, जिससे वे पलक झपकते ही सृष्टि के किसी भी कोने में पहुंच जाते और ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं अन्य सभी के दरवाजे उनके लिये हरदम खुले रहते थे। बिना किसी रोक-टोक के वे कहीं भी आ जा सकते थे।

आधुनिक समय में आम तौर पर यदि कोई दो लोगों के बीच लड़ाई कराये तो उसे हम ‘नारद मुनि’ की उपाधि देते है। विष्णु पुराण के एक आनंदमय श्लोक के अनुसार जो दो लोगों के बीच कलह करवाये वह नारद है। लेकिन नारदजी की नीयत हमेशा साफ होती है। वे परोपकारी एवं जनउद्धारक हैं। वे जो कुछ भी करते हैं प्रभु की इच्छा अनुसार ही करते हैं, कभी बदले की भावना या कभी किसी को नुकसान पहंुचाने की भावना से नहीं करते। जन-जन का कल्याण ही उनकी इच्छा होती है। सकारात्मकता, सज्जनता एवं परोपकार उनका मुख्य ध्येय होता है।

माना जाता है ऋषि नारद के कारण ही असुर हिरण्यकशिपु के प्रह्लाद जैसा संत एवं भक्त पुत्र समाज को प्राप्त हुआ। यह उदाहरण अकेला नहीं है। नारद ने ऐसे अनेक कार्य किये जिनसे भविष्य का घटनाक्रम ही बदल गया। कंस के मन में उन्होंने यह शक पैदा किया कि देवकी की कोई भी आठवीं संतान हो सकती है जो उसका वध करेगी। नारद ने ऐसा इसलिये किया कि कंस के अत्याचार और पाप इतने बढ़ जायें जिससे उसका वध करना समाज हित के लिए एक अनिवार्य कार्य हो जाए।

व्यापक दृष्टि से देखें तो नारद केवल मात्र सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं करते थे। वे तो वाणी का प्रयोग लोकहित में करते थे। महत्वपूर्ण यह भी है कि नारद स्थायी रूप से कहीं नहीं रहते थे। कहा जाता है कि प्रजापति ने उन्हें यह श्राप दिया था कि वे निरंतर भ्रमण करते रहें और एक स्थान पर रहना उनके लिए अवांछनीय था। इसलिये पत्रकारिता के लिये भ्रमणशीलता जरूरी मानी गयी है।

एक पत्रकार का कहा हुआ समाज एवं देश हित में माना जाता है, पत्रकारिता के प्रति यह विश्वसनीयता नारदजी के कारण ही है। ऐसा इसलिये भी है कि नारद ने जैसा कहा, उसे उस समय हर किसी ने सौ प्रतिशत सत्य और तथ्यात्मक माना। इतना ही नहीं, नारद ने जो सुझाव दिया, उसे किसी दानव, मानव या देवता ने न माना हो, ऐसा भी प्रकरण नहीं आता है। यहां तक कि पार्वती अपने पति शिव की बात को न मानकर नारद के कहने पर अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में जाती है और एक बड़े घटनाक्रम का सूत्रपात होता है जिसमें शिव के तांडव का उद्घाटन है। ऐसा संभव नहीं लगता कि नारद केवल एक ही व्यक्ति थे क्योंकि सतयुग, द्वापर और त्रेता युग- सभी में नारद की उपस्थिति के प्रमाण मिलते हैं। अविरल भक्ति के प्रतीक और ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाने वाले देवर्षि नारद का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुंचाना है। वह विष्णु के महानतम भक्तों में माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। भगवान विष्णु की कृपा से यह सभी युगों और तीनों लोगों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। आज की पत्रकारिता उनसे प्रेरणा ले और मानवता के कल्याण के लिये प्रतिबद्ध हो, ऐसा होने से नारदजी की स्मृति एवं उनकी उपस्थिति सार्थक मानी जा सकती है।

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