भारत के उत्थान का आधार है सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन
नरेंद्र सहगल
भारतीय चिंतन में राष्ट्र एक महान जीवमान, स्वयंभू सांस्कृतिक इकाई है, जबकि पश्चिम में राष्ट्र को राज्य मानकर एक राजनीतिक परिकल्पना मान लिया गया है. भारतीय चिंतन के अनुसार राष्ट्र प्रकृति की एक सहज परिकल्पना के अंतर्गत ही अस्तित्व में आते हैं. कुछ पुर्जे जोड़कर बनाई गई मशीन की तरह नहीं बनते. किसी एक बड़े राज्य के द्वारा छोटे राज्यों को हड़प लेने से बना राज्यों का घालमेल, छह-सात राज्यों द्वारा राजनीतिक समझौता करके गठित किया गया संघ और किसी आर्थिक अथवा सैनिक संधि के तहत स्वयंस्वीकृत शासन व्यवस्था वाले राज्यों का जमावड़ा कभी राष्ट्र नहीं हो सकता. इस प्रकार से अस्तित्व में आए तथाकथित राष्ट्रों में गृहयुद्ध, वर्ग-संघर्ष, पांथिक जंग और भौगोलिक टकराव शुरू होते देर नहीं लगती. भारत के अतिरिक्त संसार में प्रत्येक देश में यह नजारा देखने को मिलता है, जापान जैसे कुछ देश अपवाद हो सकते हैं.
इस संदर्भ में देखें तो स्पष्ट होगा कि भारत सृष्टि का प्रथम राष्ट्र है. राष्ट्र के लिए आवश्यक चारों आधार देश, भूमि, जन और चेतना भारत में अति प्राचीन काल से मौजूद रही है. ईसाई एवं मुसलिम समाज के पृथ्वी पर जन्म लेने से बहुत पहले ही हमारे राष्ट्र की सीमाएँ प्रकृति द्वारा निश्चित कर दी गई थीं. भारत की भौगोलिक सीमाओं के शास्त्रीय उल्लेख में हिमालय और समुद्र के उत्तर क्षेत्र का वर्णन मिलता है. ‘विष्णु-पुराण’ के अनुसार समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण का भू-भाग, जिसमें भारत की संतति निवास करती है – भारतवर्ष है. इसी तरह ‘वायु-पुराण’ के अनुसार गंगा के स्त्रोत (हिमालय पर्वत) से कन्याकुमारी तक भारत देश की लंबाई एक हजार योजन है.
एक जन, एक संस्कृति, एक राष्ट्र
आज अंग्रेजों के पढ़ाए हुए जो इतिहासकार, मार्क्स के मापदंडों पर चलने वाले विद्वान कामरेड और जिहादी मनोवृति वाले उलेमा भारतीय संस्कृति को पिछड़ी, कुंठित एवं भारतीय राष्ट्र जीवन को विभिन्न राज्यों का राजनीतिक समूह मानते हैं, उन्हें भारत के ही प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए. अंग्रेजों की योजनानुसार अस्तित्व में आए कांग्रेस दल के वर्तमान नेताओं को भी चाहिए कि वे अंग्रेजी शासकों की तोता रटंत को राष्ट्र हित में तिलांजलि देकर विभाजक चिंतन को छोड़ें और भारत की वास्तविक राष्ट्रीय पहचान एक जन, एक संस्कृति की अवधारणा को समझने का सद्प्रयास करें.
इसी संदर्भ में भारत भूमि का संपूर्ण सुख भोग रहे उन समाजों को भी अब भारत राष्ट्र के हित में अपना कट्टरपंथी रुख बदलने की आवश्यकता है, जो भारतमाता की संतान होते हुए भी देश के टुकड़े करके अपने मजहबी राष्ट्र बनाने के इरादों पर चल रहे हैं. ऐसे समाजों की भलाई और विकास इसी में निहित है कि वे देश के राष्ट्रीय महापुरुषों (जो उनके भी पूर्वज हैं), राष्ट्रीय स्थलों व राष्ट्रीय संस्कृति का सम्मान करें. राष्ट्रीय गान वन्देमातरम् का विरोध और भारतमाता को डायन कहकर वे भारतीय कैसे कहला सकते हैं? भारतीय बनने के लिए भारत के सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन से जुड़े रहने में परहेज कैसा? अपने-अपने मजहबी रास्ते पर स्वतंत्रता से चलते हुए भारतीय राष्ट्र जीवन अर्थात् हिंदुत्व का सम्मान करने से अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक जैसी राष्ट्रघातक शब्दावली को भी विराम मिलेगा.
प्रखर राष्ट्रभक्ति का उदय
इन दिनों भारत में सक्रिय राष्ट्रीय संगठनों, कई सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्र जीवन अथवा हिंदुत्व का प्रचार-प्रसार करने पर उन्हें सांप्रदायिक, फासिस्ट और पुरातनपंथी जैसे आरोपों का सामना करना पड़ रहा है. देश के सबसे बड़े राजनितिक / सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी ने भी अपने वैचारिक आधार के रूप में हिंदुत्व पर आस्था व्यक्त की है. देश के कोने-कोने में घूम रहे संत महात्मा भी किसी-ना-किसी रूप में हिन्दू संस्कृति की ध्वजा उठाए राष्ट्रीयता के जागरण में अपनी भूमिका निभा रहे हैं. भारत में सांस्कृतिक जागरण की किरणें उदित होनी प्रारंभ हुई हैं.
जैसे-जैसे प्रखर राष्ट्रभक्ति का माहौल तैयार हो रहा है, समाज जीवन करवट बदल रहा है और अराष्ट्रीय तत्वों की पराजय सुनिश्चित होती जा रही है, वैसे-वैसे हिन्दुत्व विरोधी शक्तियों को अपने अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराते हुए दिखाई देने लगे हैं. ये शक्तियां किसी भी तरह हिन्दुत्व को जाग्रत होते देखना नहीं चाहतीं. यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आतंकवादी, स्वामी रामदेव को ठग, और ऐसे ही अनेक साधु- संन्यासियों को चरित्र भ्रष्ट जैसे अपमानजनक शब्दों से नवाजा जा रहा है. सच्चाई यह है कि ऐसी सभी समस्याओं और गैर राजनीतिक नेताओं के निरंतर प्रयासों के फलस्वरूप देश में राष्ट्रीयता का उभार होना प्रारंभ हुआ है.
राष्ट्रभक्ति ले हृदय में
जो काम स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत पश्चात प्रारंभ होना चाहिए था, उसकी अब एक झलक मिलने लगी है. अनेक राष्ट्रीय संगठनों विशेषतया संघ जैसे राष्ट्रीय संगठन ने अपनी शाखाओं, कार्यक्रमों, और शिविरों के माध्यम से देश के लाखों युवकों को राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाकर सांस्कृतिक जागरण का धरातल तैयार कर दिया है. संघ शाखाओं में गूंजने वाले राष्ट्रभक्ति के गीत, राष्ट्र विरोधी शक्तियों के खिलाफ आंदोलनों में वन्देमातरम्, भारतमाता की जय, इंकलाब जिंदाबाद के उद्घोष और स्वामी रामदेव द्वारा शुरू की गई योग क्रांति में उठो जवान देश की वसुंधरा पुकारती की ललकार,अन्य सामजिक व धार्मिक आंदोलन इसका ज्वलंत प्रमाण हैं. समय करवट बदल रहा है.
राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक और शैक्षणिक क्षेत्रों में आई गिरावट राष्ट्रीय भावों के जागरण से ही समाप्त होगी. गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, निराशा और लाचारी जैसी समस्याएँ समाजसेवा की मनोवृत्ति तैयार होने से दम तोड़ देंगी. राष्ट्र जीवन के सच्चे साक्षात्कार से अलगाववाद और आतंकवाद पराजित हो जाएंगे. जब भारतीय समाज देश की राष्ट्रीय संस्कृति से पुनः जुड़ेगा तो समस्त आंतरिक और बाह्य चुनौतियों का सामना कर उन पर विजय प्राप्त करने में भारत सफल होगा. राष्ट्रीय आदर्शों और आकांक्षाओं की नींव में सुदृढ़ होते ही एक अजेय राष्ट्रशक्ति का उदय होगा. जब सारे समाज को अपने राष्ट्रीय जीवनोद्देश्य का ज्ञान होगा और हृदय में राष्ट्रभक्ति लिए युवाओं की टोलियाँ आगे बढ़ेंगी तो सभी संकटों को पराजित करके हमारा राष्ट्र विजयी होगा. …इति
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं स्तम्भकार हैं)