स्वतंत्रता संग्राम की व्यापकता, तीव्रता और प्रभाव
डलहौजी ने भारत से जाने के बाद, अगले दिन (29 फरवरी, 1956) ही विक्टोरिया को एक पत्र लिखा. उसने अपनी महारानी को बताया कि भारत में शांति कब तक बनी रहेगी, इसका कोई भी सही आंकलन नहीं कर सकता. उस पत्र में आगे लिखा कि इसमें कोई छिपाव नहीं है कि किसी भी समय संकट उठ खड़ा हो सकता है. भारत का अगला गवर्नर-जनरल कैनिंग बना और उसने भी डलहौजी के मत की पुष्टि की.[i] इस चिट्ठी के एक साल के अन्दर ही भारत का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया. इससे एक बात तो पक्की हो गयी कि संग्राम सुनियोजित था. हालाँकि इसकी भनक ब्रिटिश अधिकारियों लगने लगी थी, लेकिन वे कुछ कर पाते, इससे पहले संग्राम का स्वरुप देशव्यापी हो चुका था.
व्यापकता की पुष्टि हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में 13 जुलाई, 1857 को स्वतंत्रता संग्राम के सम्बन्ध में पूछे गए एक प्रश्न से हो जाती है. उस दिन ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल का अध्यक्ष और गवर्नर-जनरल (1842-1844) रह चुके ऐलनबरो ने बताया कि यह खतरनाक और लगातार फैल रहा है. उसने संसद को बताया कि हमारा साम्राज्य खतरे में है और स्थिति बदतर से बदतर होती जा रही है.[ii] इस भाषण के अंशों से स्पष्ट और पर्याप्त है कि संग्राम से ईस्ट इंडिया कंपनी, ब्रिटिश संसद और ब्रिटिश क्राउन सभी की नींव हिल चुकी थी. इसका सीधा असर इतना तीव्र था कि विक्टोरिया को खुद हस्तक्षेप करके पूरी व्यवस्था में परिवर्तन करना पड़ गया था.
विक्टोरिया ने 19 जुलाई, 1857 को अपने प्रधानमंत्री पामर्स्टन को एक पत्र भेजा. उस चिट्ठी में ब्रिटेन की महारानी ने संग्राम को भयभीत करने वाला अनुभव बताया.[iii] उसी दौरान पामर्स्टन ने भी एक पत्र लिखा. जिसके अनुसार उसे खुद भी अंदाजा नहीं था कि संग्राम देशभर में फैल जाएगा. इस चिट्ठी के आखिरी में ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने संग्राम का कारण हिन्दू संतों को बताया.[iv] यहां दो तथ्य सामने आते हैं – एक उस महासमर में हिन्दुओं की भूमिका केंद्र बिंदु में थी. दूसरा 1858 के बाद हिन्दुओं के विरुद्ध मुसलमानों को भड़काना ब्रिटिश सरकार की नीतियों का आधार बनाया गया.
स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो यूनाइटेड किंगडम में प्रधानमंत्री पामर्स्टन था. जब यह समाप्ति की ओर था तो वहां सरकार का नेतृत्व डर्बी के हाथों में था. दोनों का जिक्र इसलिए जरुरी है क्योंकि पामर्स्टन ने ही ईस्ट इंडिया कंपनी से सत्ता का हस्तांतरण क्राउन को दिए जाने का प्रस्ताव रखा. जिसे उसने हॉउस ऑफ कॉमन से पास करवा लिया था. जबकि डर्बी के कार्यकाल में यह प्रस्ताव अधिनियम बना. इस अधिनियम की एक महत्वपूर्ण उपज ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फ़ॉर इंडिया’ नाम से नए विभाग का सृजन था. वैसे तो पूर्ववर्ती कंपनी के कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर के अध्यक्ष का ही यह नया नाम था. इसका पहला सेक्रेटरी एडवर्ड हेनरी स्टेनली को बनाया गया जो डर्बी का बेटा था. इसकी घोषणा विक्टोरिया ने 1 नवम्बर, 1858 को की. अब भारत के गवर्नर जनरल के नाम के आगे वायसराय शब्द जोड़ दिया गया था. ब्रिटेन की महारानी से सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के माध्यम से वायसराय को आदेश और अधिनियम मिलने का प्रावधान शामिल किया गया.[v] यह ब्रिटिश काल में भारत में मुस्लिम तुष्टिकरण, साम्प्रदायिकता और विभाजन के भयानक दौर की शुरुआत थी.
ब्रिटिश साम्राज्यवाद को बचाने के लिए भारतीय सामाजिक और राजनैतिक विभाजन
सेक्रेटरी ऑफ स्टेट की भूमिका एक कुख्यात साजिशकर्ता के रुप में थी. इसका एक उदाहरण 1883 में मिलता है. उस समय मुस्लिम राजनीति एक ब्रिटिश लेखक डब्लू. एस. ब्लंट से बहुत हद तक प्रभावित थी. ब्लंट भारत में कई मुस्लिम नेताओं से मिल चुका था. उसे बताया कि एंग्लो-इजिप्ट युद्ध में मुसलमानों को पाशा से उम्मीद थी कि वह उनका भाग्य बदल देगा.[vi] यह तथ्य इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि हिन्दुओं के स्थान पर भारतीय मुसलमानों ने भारत से बाहर अपने संबद्ध स्थापित करने शुरू कर दिए थे. इस एक विचार ने भारतीय राष्ट्रवाद को बहुत नुकसान पहुँचाया था.
इस पैन-इस्लामिक मूवमेंट की शुरुआत अफगानिस्तान के जमाल अफगानी ने की थी. वह 1881 के आसपास भारत आया और गुप्त रूप से मुस्लिम नेताओं से मुलाकात की. कलकत्ता में वह नवाब अब्दुल लतीफ़ और उसके साथ आए शिक्षित मुसलमानों के एक छोटे दल से मिला. इसमें अमीर अली भी शामिल था. राष्ट्रवादी नेता बिपिन चन्द्र पाल अपनी आत्मकथा में इसका जिक्र करते हुए लिखते हैं – “इन सभी में पैन-इस्लामिक वाइरस का टीकाकरण किया गया. इसके बाद उन्होंने हिन्दुओं की राजनैतिक गतिविधियों से दूरियां बनाना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे हमारे राष्ट्रीय प्रयासों में हिन्दुओं और प्रबुद्ध मुसलमानों के बीच गहरी खाई उत्पन्न होनी लगी.”[vii] मुसलमानों के बीच पनप रहे इस मूवमेंट की ब्रिटिश सरकार को जानकारी थी. सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट, हेमिल्टन ने वायसराय एल्गिन को 30 जुलाई, 1897 को एक पत्र लिखा, “पैन-इस्लामिक काउंसिल के माध्यम से हमें भारत में साजिश और उत्तेजनाओं को भड़काने का नया अवयव मिल गया है.”[viii] सेक्रेटरी ऑफ स्टेट का यही वास्तविक काम था, जिसे पूरा करने की जिम्मेदारी वायसराय पर थी.
ब्रिटिश नीतियों में मुसलमानों के प्रति लगाव और सम्पूर्ण ब्रिटिश विरोधी आंदोलन को धक्का
स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश क्राउन का एकतरफा नियम था कि मुसलमानों को हिन्दुओं के ब्रिटिश विरोधी आंदोलन में शामिल नहीं होने देना. इसके लिए उन्होंने मुस्लिम तुष्टिकरण का इस्तेमाल किया. ब्रिटिश इतिहास में इसके निशान अलीगढ़ में मिलते हैं. सैयद अहमद ने 1869 में इंग्लैंड का दौरा किया और 1870 में लौटने के बाद अपने समुदाय के बीच अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी संस्कृति के प्रसार के लिए जोरदार प्रचार शुरू कर दिया. उन्होंने 1877 में अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना की. इतिहासकारों के अनुसार सैयद के प्रयास सामाजिक और धार्मिक सुधारों तक ही सीमित नहीं थे. उन्होंने मुस्लिम राजनीति को एक अलग नया मोड़ दिया जो हिन्दू विरोधी बन गई.[ix]
एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज हिन्दुओं के खिलाफ प्रचार का मुख्य केंद्र बन गया था. उसका निर्देशन एक ब्रिटिश व्यक्ति बेक के पास था जो सैयद अहमद का करीबी दोस्त और मार्गदर्शक था. कॉलेज के मुखपत्र अलीगढ़ इंस्टीट्यूट गजट का संपादन बेक के पास था. उसने हिन्दुओं के राजनैतिक और सामाजिक विचारों पर जहर उगलना शुरू किया. उसने लिखा कि भारत के लिए संसदीय व्यवस्था अनुपयुक्त है और इसके स्वीकृत होने की स्थिति में, बहुसंख्यक हिन्दुओं का वहां उस तरह राज होगा जो किसी मुस्लिम सम्राट का भी नहीं था.[x] मोहम्मद अली जिन्ना ने भी इसी आधार पर पाकिस्तान की मांग की थी.
मुस्लिम लीग का इतिहास भी ब्रिटिश षड्यंत्रों से भरा हुआ है. आगा खान के नेतृत्व में 1 अक्तूबर, 1906 को 36 मुसलमानों का एक दल वायसराय मिन्टो से मिला. इस मुलाकात का मकसद मुसलमानों द्वारा आरक्षण की मांग करना था. मिन्टो ने उनकी सभी मांगों पर सहमती जताते हुए कहा, “मैं पूरी तरह से आपसे सहमत हूँ. मैं आपको यह कह सकता हूँ कि किसी भी प्रशासनिक परिवर्तन में मुस्लिम समुदाय अपने राजनैतिक अधिकारों और हितों के लिए निश्चिंत रहें.”[xi] यह ब्रिटिश सरकार की आधिकारिक घोषणा थी. जिसमें हिन्दू और मुसलमानों को दो अलग राष्ट्रों के रूप में देखा गया. इसी एक मुलाकात ने भारत विभाजन की तारीख लिख दी थी.
इस प्रतिनिधि दल की रचना अथवा योजना खुद ब्रिटिश सरकार ने तय की थी. इसका मकसद मुसलमानों को उस राजनैतिक संघर्ष से दूर रखना था, जिसका संचालन हिन्दुओं द्वारा किया जा रहा था. लेडी मिन्टो लिखती हैं, “यह मुलाकात भारत और भारतीय इतिहास को कई सालों तक प्रभावित करेगी. इसका मकसद 60 मिलियन लोगों को विद्रोही विपक्ष के साथ जुड़ने से रोकने के अलावा कुछ नहीं है.”[xii] ब्रिटिश प्रधानमंत्री रहे रामसे मैक्डोनाल्ड ने इस मुलाकात को ‘डिवाइड एंड रूल’ पर आधारित जानबूझकर और पैशाचिक काम बताया. अपनी पुस्तक ‘अवाकिंग ऑफ़ इंडिया’ में वे यह मानते हैं कि मुसलमानों को हिन्दुओं से ज्यादा मताधिकार मिले हुए थे. संख्या के हिसाब से उनका प्रतिनिधित्व भी ज्यादा था. वे लिखते हैं, “इस योजना का पहला परिणाम दोनों समुदायों को अलग करना और समझदार एवं संविधानप्रिय राष्ट्रवादी लोगों के लिए अड़चनें पैदा करना था.”[xiii]
मैक्डोनाल्ड यह भी खुलासा करते हैं कि मुसलमान नेता कुछ एंग्लो-इंडियन अधिकारियों से प्रेरित थे. इन अधिकारियों ने शिमला और लन्दन कई तार भेजे. जिसमें हिन्दुओं एवं मुसलमानों के बीच एक सोची-समझी कलह और द्वेष के आधार पर मुसलमानों के लिए विशेष समर्थन माँगा गया.[xiv]तुष्टिकरण के इसी आधार पर 30 दिसंबर, 1906 को आल इंडिया मुस्लिम लीग बनाई गई. कराची में 29 दिसंबर, 1907 लीग के अधिवेशन में इसके उद्देश्य और लक्ष्य निर्धारित किये गए. इसमें सबसे प्रमुख ब्रिटिश सरकार और भारत के मुसलमानों के बीच वफादारी को बढ़ावा देना था.[xv]
प्लासी के युद्ध (1757) के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ों को उखाड़ फेंकने का सुनहरा अवसर 1857 का स्वतंत्रता संग्राम था. चूंकि यह हिन्दुओं द्वारा शुरू किया गया था तो मुस्लिम नेतृत्व ने इसमें दिलचस्पी नहीं ली. जैसे की एक मुस्लिम नवाब ने एक ब्रिटिश अधिकारी को बताया कि विद्रोहियों में अधिकतर हिन्दू थे और वह उन्हें पसंद नहीं करता था. इसलिए वह नवाब अपने शहर में ही रहा. इस तरह उसने ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रति अपनी स्वामी भक्ति का प्रदर्शन किया.[xvi] बाद में ऐसे मौकों को ब्रिटिश क्राउन ने बंटवारा, तुष्टिकरण और साम्प्रदायिकता में बदल दिया. मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ राजनैतिक आंदोलन से खुद को अलग कर लिया. उन्हें लगने लगा कि मुस्लिम हित अंग्रेजों के हाथों में काफी सुरक्षित हैं. फलस्वरूप अगले 90 सालों तक मुसलमानों ने अंग्रेजों की सर्वोपरिता को स्वीकार कर लिया.
देवेश खंडेलवाल
[i] Theodore Martin, The Life of the Prince Consort, vol. 4, Smith: London, 1879, p. 19
[ii] House of Lords, The Mutiny in India – Question, 13 July, 1857
[iii] Ewing Harding, From Palmerstone to Disraeli, 1856-1876, G. Bell: London, p. 1913, pp. 5-9
[iv] Marquis of Lorne, Viscount Palmerstone, Harper & Brothers: New York, 1892, p. 185
[v] Proclamation by the Queen in Council, to the Princes, Chiefs, and People of India, 1 November, 1858
[vi] Wilfrid Scawen Blunt, Indian Under Ripon, T Fisher: London, 1909, p. 112
[vii] Bipin Chandra Pal, Memories of My Life and Times, Modern Book: Calcutta, 1932, p. 417
[viii] R.C. Majumdar, History of the Freedom Movement in India, volume 1, Frima K.L.: Calcutta, 1962, p. 475
[ix] Ibid., p. 479
[x] Aligarh Institute Gazette, 21 July, 1888, pp. 811-13
[xi] Mary – Countess of Minto, India Minto and Morley 1905-1910, Macmillan: London, 1934, p. 47
[xii] Ibid., pp. 47-8
[xiii] J. Ramsay Macdonald, the Awakening of India, Hodder and Stoughton: London, pp. 176-77
[xiv] Ibid., pp. 176
[xv] G.N. Singh, Landmarks in Indian Constitutional and National Development, 1963, p. 384
[xvi] Wilfrid Scawen Blunt, Indian Under Ripon, T Fisher: London, 1909, pp. 164-65