– प्रशांत पोळ
किसी व्यक्ति के कार्य का मूल्यांकन करना है, या उस व्यक्ति ने किये हुए कार्य का यश – अपयश देखना हैं, तो उस व्यक्ति के पश्चात, उसके कार्य की स्थिती क्या है, यह देखना उचित रहता हैं. उदाहरण हैं – छत्रपती शिवाजी महाराज. मात्र पचास वर्ष का जीवन. लगभग तीस वर्ष उन्होंने राज- काज किया और हिंदवी साम्राज्य खडा किया. किंतु उनके मृत्यु के पश्चात उस हिंदवी स्वराज्य की परिस्थिती क्या थी? हिंदुस्थान का शहंशाह औरंगजेब तीन लाख की चतुरंग सेना लेकर महाराष्ट्र मे आया था, इसी हिंदवी स्वराज्य को मसलने के लिए, सदा के लिए समाप्त करने के लिए.
परिणाम?
सारी जोड़-तोड़ करने के बाद, वह संभाजी महाराज से मात्र २ – ४ दुर्ग (किले) ही जीत सका. आखिरकार छल कपट कर के, ११ मार्च १६८९ को औरंगजेब ने संभाजी महाराज को तड़पा – तड़पा के, अत्यंत क्रूरता के साथ समाप्त किया. उसे लगा, अब तो हिंदुओं का राज्य, यूं मसल दूंगा. लेकिन मराठों ने, शिवाजी महाराज के दूसरे पुत्र – राजाराम महाराज के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा. आखिर ३ मार्च १७०० को राजाराम महाराज भी चल बसे. औरंगजेब ने सोचा, ‘चलो, अब तो कोई नेता भी नहीं बचा इन मराठों का. अब तो जीत अपनी हैं.’
*किन्तु शिवाजी महाराज की प्रेरणा से सामान्य व्यक्ति, मावले, किसान… सभी सैनिक बन गए. मानो महाराष्ट्र में घास की पत्तियां भी भाले और बर्छी बन गई. आलमगीर औरंगजेब इस हिंदवी स्वराज्य को जीत न सका. पूरे २६ वर्ष वह महाराष्ट्र में, भारी भरकम सेना लेकर मराठों से लड़ता रहा. इन छब्बीस वर्षों में उसने आग्रा / दिल्ली का मुंह तक नहीं देखा. आखिरकार ८९ वर्ष की आयु में, ३ मार्च १७०७ को, उसकी महाराष्ट्र में, अहमदनगर के पास मौत हुई, और उसे औरंगाबाद के पास दफनाया गया. जो औरंगजेब हिंदवी स्वराज्य को मिटाने निकला था, उसकी कब्र उसी महाराष्ट्र में खुदी.* मुगल वंश मानो समाप्त हुआ. मराठों का दबदबा दिल्ली पर चलने लगा. बाद मे तो हिंदूओंका भगवा ध्वज लाल किल्ले की प्राचीर पर फहरने लगा. मात्र दो तीन जिलों तक फैला हुआ हिंदवी स्वराज्य छत्रपती शिवाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात सारे भारत वर्ष मे फैल गया. अटक के भी उस पार तक गया.
इसी दृष्टिकोन से डॉक्टर केशव बळीराम हेडगेवार जी के कार्य को देखना चाहिए. 1889 से 1940, यह मात्र 51 वर्षों का जीवन प्रवास है. इस प्रवास के अंतिम 15 वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के पश्चात के है. *जिन दिनों लोग हिंदू हितों की रक्षा के लिए बोलने मे भी घबराते थे, हिंदू कहलाने सकुचाते थे, उन्ही दिनों डॉक्टर हेडगेवार जी अत्यंत आत्मविश्वाससे बोल रहे थे, “हां, मै कहता हूं, यह हिंदू राष्ट्र है.”*
आज डॉक्टर हेडगेवार जी के कार्य का स्वरूप क्या है?
डॉक्टर जी ने सन 1925 मे शुरू किया हुआ संघ आज भारत के कोने – कोने मे पहुंचा है. इसी के साथ विश्व के उन सभी देशों में, जहां हिंदू कम संख्या मे भी क्यूं ना हो, रहते है, उन सभी देशों में संघ के स्वयंसेवक है. और यह सज्जनशक्ती डॉक्टर हेडगेवार जी को अपेक्षित ऐसे हिंदू संस्कृती के मूलाधार राष्ट्र को वैभवशाली, समृद्ध और संपन्न बनाने मे जुटी है.
यह डॉक्टर हेडगेवार जी का निर्विवाद यश है.
डॉक्टर हेडगेवार जी ने अपने जीवन का उत्तरार्ध यह हिंदू संघटन के लिए दिया. बाल्यकाल से ही डॉक्टर हेडगेवार प्रखर देशभक्त थे, साथ ही प्रत्यक्ष कार्य करने वाले कृतिशील कार्यकर्ता थे. उनके मन मे जो अंगार जल रही थी वह परतंत्रता को लेकर थी. इसीलिए विशाल भारत वर्ष पर राज करने वाली अंग्रेजी सत्ता को उखाडकर फेकना यह उनके जीवन का ध्येय (लक्ष्य) बना था. इसी ध्येय का अनुसरण करते हुए उन्होने अपने महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) यह शहर चुना. वे बंगभंग आंदोलन के दिन थे. कलकत्ता यह क्रांतीकारियों का केंद्र बना था. हेडगेवार जी छह वर्ष कलकत्ता मे रहे. क्रांतिकारीयों की ‘अनुशीलन समिती’ के वे सदस्य बने. ‘कोकेन’ इस नाम से क्रांतिकारीयों मे जाने जाते थे. इस क्रांतिकारी आंदोलन को उन्होने अत्यंत निकट से देखा.
किंतु ‘इस रास्ते से स्वराज्य मिलेगा क्या?’ यह एक प्रश्न तथा साथ ही दुसरा महत्त्व का प्रश्न ‘स्वतंत्रता मिलने के बाद हमारे देश की रचना कैसी होनी चाहिये?’ यह भी उनको सताये जा रहा था. हमारा देश जिन कारणों से गुलाम हुआ, उन कारणोंको दूर करते हुए नया स्वतंत्र भारत कैसा होना चाहिये इस पर वह सतत चिंतन करते थे. किंतु उनके प्रश्नों के उत्तर उनको नही मिल रहे थे. उन्होने कांग्रेस मे रहकर काम किया. पहिले सदस्य बने फिर पदाधिकारी. अत्यंत सक्रियतासे उन्होने काँग्रेस के आंदोलनों मे हिस्सा लिया. दो बार जेल गए. किंतु उनको समझ मे आया की काँग्रेसमें, या अन्य सभी प्रवाहो में, इस देश का मूलाधार हिंदू यह उपेक्षित हो रहा है. मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर हिंदूओं पर जबरदस्त दबाव बनाया जा रहा है. इसका दोषी भी हिंदू समाज ही है. हिंदू अपने तेजस्वी इतिहास को, शौर्य को, साहस को तेज को, गौरवशाली परंपराओंको भुलते जा रहे है.
स्वतंत्रता मिलने पर स्वतंत्र भारत मे हिन्दुओं की स्थिती, अर्थात देश की स्थिती कैसी रहेगी इसका भीषण और भयानक चित्र उनको सामने दिख रहा था. इसलिये वर्ष 1916 मे मेडिकल की परीक्षा उत्तीर्ण करके वे नागपूर आये. अविवाहित रहकर संपूर्ण जीवन राष्ट्र कार्य के लिए लगाने का उनका प्रण था. अगले नौ वर्ष, वे स्वतंत्रता प्राप्ति के विविध प्रवाहों मे शामिल होकर अपने प्रश्न का उत्तर खोज रहे थे. 1923 और 1924 मे नागपूर मे मुस्लिम आक्रमकता बढ रही थी. डॉक्टर हेडगेवार काँग्रेस के पदाधिकारी थे. अपने प्रश्न का उत्तर ढूंढने वे फरवरी 1924 मे वर्धा मे महात्मा गांधीजी से मिले. किंतु हिंदू – मुस्लिम समस्या के बारे मे उन्हे तर्कपूर्ण या समाधानकारक उत्तर नही मिले.
इन सभी प्रक्रियाओंसे निकलते हुए, अपने सहकारी कार्यकर्ताओं से, नेताओं से विचार विनिमय करते हुए, डॉक्टर जी के मन मस्तिष्क मे हिंदू संघटन की रूपरेखा तैयार हो रही थी. किसी का भी द्वेष न करते हुए, एक ऐसा हिंदू संघटन खडा करना, जिससे अनुशासन रहेगा, सैनिकी पद्धती का कामकाज रहेगा, और वैचारिक स्पष्टता होगी. इसी को आगे बढाते हुए वर्ष 1925 के विजयादशमी के दिन, अर्थात रविवार दिनांक 27 सितंबर को नागपूर मे डॉक्टर हेडगेवार जी के घर पर संघ प्रारंभ हुआ. यह संघटन मुस्लिम आक्रामकता के प्रतिक्रिया के स्वरूप बना था क्या? इसका स्पष्ट उत्तर है – नही. दिनांक 28 मार्च 1937 मे अकोला के इस्टर कॅम्प मे स्वयंसेवकोंके सामने बोलते हुए डॉक्टर जी ने कहा था,” हिंदुस्तान की रक्षा के लिए एखादा स्वयंसेवक संघ बना होता, जिसमे मुसलमान, ख्रिश्चन, अंग्रेज अथवा अन्य देशीय, अन्य धर्मीय लोग रहते या नही रहते, तो भी अपने हिंदू समाज को ऐसे संघ का निर्माण करना क्रमप्राप्त (आवश्यक) था.”
*डॉक्टर साहब की सोच बहुत दूर की थी. यह राष्ट्र संपन्न होना चाहिये, समृद्ध होना चाहिये, शक्तिशाली बनना चाहिये और इसलिये इस देश की जो मूल अस्मिता है, पहचान है, जो हिंदू आचार, विचार और परंपरांओंपर आधारित है, वह सशक्त और बलशाली होना चाहिये. यह तभी संभव है जब हमारा देश स्वतंत्र होगा. इसीलिए संघ का प्रारंभिक ध्येय इस देश को स्वतंत्र करने का था.*
संघ प्रारंभ होने के ढाई वर्ष बाद, अर्थात वर्ष १९२८ के मार्च महिने मे नागपूर – अमरावती रास्ते के ‘स्टार्की पॉईंट’ पर विशेष रूप से चुने हुए 99 स्वयंसेवकों को डॉक्टर जी ने स्वयं प्रतिज्ञा दी. इस प्रतिज्ञा मे भी स्वतंत्रता का यही भाव प्रकट होता है. प्रतिज्ञा मूल मराठी मे इस प्रकार है –
“मी सर्व शक्तिमान श्री परमेश्वराला व आपल्या पूर्वजांना स्मरून प्रतिज्ञा करतो की, मी आपला पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृती व हिंदू समाज यांचे संरक्षणाकरिता व हिंदू राष्ट्राला स्वतंत्र करण्याकरिता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघाचा घटक झालो आहे. संघाचे कार्य मी प्रामाणिकपणे, नि:स्वार्थ बुद्धीने आणि तनमनधने करून करीन, व हे व्रत मी आजन्म पाळीन.”
“जय बजरंग बली हनुमान की जय!”
_(मै सर्व शक्तिमान श्री परमेश्वर और मेरे पूर्वजों का स्मरण करते हुए प्रतिज्ञा लेता हूँ कि अपना पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृती व हिंदू समाज की रक्षा के लिए एवं हिंदू राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिए मै राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का घटक बना हूं. संघ का कार्य मैं प्रामाणिकता से, निस्वार्थ बुध्दि से व तन – मन – धन से करुंगा. इस व्रत का मै आजन्म पालन करूंगा._
_जय बजरंग बली. हनुमान जी की जय.)_
डॉक्टरजी ने जब संघ प्रारंभ किया, तब ‘हिंदुत्व’ यह शब्द प्रचलन मे नही था. स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी ने 1927 से इस शब्द का प्रयोग करना प्रारंभ किया. इसके पहले स्वामी विवेकानंदजी ने हिंदुत्व के लिए ‘हिंदूइझम’ इस शब्द का प्रयोग किया था. ‘इझम’ याने वाद अर्थात ‘हिंदू वाद’. यह शब्द बादमे भी अनेकों बार प्रयोग किया गया. डॉक्टरजी ने ‘हिंदुत्व’ के समानार्थी शब्द के रूप मे ‘हिंदू हूड’ (Hindu hood) इस शब्द का प्रयोग किया है.
मद्रास के डॉक्टर नायडू ने तामिळनाडू मे हिंदू महासभा कॉन्फरन्स का आयोजन किया था. ‘इस कॉन्फरन्स मे डॉक्टर जी ने उपस्थित रहना चाहिए’ ऐसा आग्रह करने वाला पत्र डॉक्टर नायडू ने डॉक्टर जी को लिखा. किंतु स्वास्थ्य ठीक न होने से डॉक्टर जी बिहार के राजगीर मे गये थे. अर्थात उनका मद्रास जाना संभव नही था. इस संदर्भ में अपनी मृत्यू से तीन महिने पहले, अर्थात 1940 के 17 मार्च को, डॉक्टर जी ने मद्रास के डॉक्टर नायडू को पत्र लिखा. ‘हिंदू समाज मे हिंदू जनजागरण के कार्य की आवश्यकता’ इस पत्र में डॉक्टर जी ने अधोरेखित की है. डॉक्टर जी लिखते है – ” To arouse the dormant spirit of Hinduhood among our brethren of the South.”
_(“दक्षिण के बंधूओं मे हिंदुत्व की सुप्त भावनाओं को जगाने का यह कार्य है”)_
19 ऑक्टोबर 1929 को डॉक्टरजी ने नीलकंठ राव सदाफळ जी को एक पत्र भेजा है. इसमे डॉक्टर लिखते है, *“स्वयंसेवकों के मन मे राष्ट्रीयत्व का पूर्णतः संचार करके, हिंदुत्व और राष्ट्रीयत्व में कोई भेद नही है, यह दोनो बाते एकही है, यह तर्कपूर्ण ढंग से समझाना, यह संघ शाखाओं का काम है.”*
डॉक्टर जी ने एक जगह लिखा हैं –
सामर्थ्य है हिंदुत्व का।
प्रत्येक हिंदू राष्ट्रीय का।।
किंतु उसे संगठन का,
अधिष्ठान चाहिये..!
वे आगे लिखते है, ” हिंदुस्तान में आसेतू हिमाचल बसने वाले अखिल हिंदूओं का एकरूप और मजबूत संगठन खडा करना यही हमारा वर्तमान धर्म है. हम लोगों मे राष्ट्रीयत्व की भावना निर्माण करके, हिंदू यह सब एक राष्ट् के अंग है तथा हिंदू समाज के विभिन्न मत – पंथों के आचार – विचार एक ही प्रकार के है, यह वैज्ञानिक दृष्टीसे समझाकर, प्रत्यक्ष कार्य करना है.”
*डॉक्टर जी का हिंदुत्व समझने के लिये अत्यंत सरल, सीधा और सुगम था. स्व. दादाराव परमार्थ उनके ‘परमपूजनीय डॉक्टर हेडगेवार’ इस लेख मे लिखते है, “यह देश हिंदुओं का है, यह तो हम सब का विश्वास था. हिंदू बाहर से आये है यह कल्पना हमे मान्य नही थी. मुलतः हिंदू इसी देश के है तथा अपने त्याग, समर्पण और कर्तृत्व से यह राष्ट्र उन्होने खडा किया है. इस देश का राष्ट्रीयत्व यह हिंदुत्व है, इस पर डॉक्टर जी की अटूट श्रद्धा थी. इसलिये, इस देश पर पूर्ण समर्पित भाव से प्रेम करने वाला हिंदू हैं. इस देश की प्रगती के लिये अपने आपको झोंककर काम करने वाला हिंदू हैं. इस देश की सर्वांगीण उन्नती के लिए प्रयत्न की पराकाष्ठा करने वाला हिंदू हैं. और ऐसे सारे हिंदूओंका संगठन बांधना यह डॉक्टर जी का ध्येय था. इतने सीधे, सरल और स्वच्छ नजरों से देखने के कारण डॉक्टर जी को हिंदू समाज के भेद-विभेद, जाती-पाती कभी दिखी ही नही. हिंदूओंका संगठन करते समय यह विचार गलतीसे भी उनके मन मे नही आया.”*
और इसलिये जाती-पाती के चष्मे से जो लोग हिंदू समाज को देखते थे, उनको बडा आश्चर्य लगता था. महात्मा गांधीजी को भी इसका आश्चर्य लगा था. वर्ष 1934 के दिसंबर मे वर्धा मे संघ का शितकालीन शिवीर लगा था. उन दिनों महात्मा गांधीजी का मुकाम वर्धा शहर मे था. महात्मा जी के बंगले के पास ही यह शिवीर स्थल था, इसलिए महात्माजी को संघ के डेढ़ हजार स्वयंसेवकों के इस अनुशासित शिबिर को देखने की इच्छा हुई. उनकी सुविधानुसार समय तय हुआ. 25 दिसंबर 1934 मंगलवार को प्रातः छह बजे महात्माजी शिबिर को भेट देंगे यह निश्चित हुआ.
महात्मा जी तय समय पर शिबिर मे आए. वे वहां लगभग डेढ़ – दो घंटे रुके. उन्होने शिविर की सारी जानकारी ली. सभी स्वयंसेवक एक साथ रहते हैं, एकही पंक्ती में भोजन करते है, यह सुनकर और देखकर उन्हे आश्चर्य लगा. जो दिख रहा है, उसमे कितना तथ्य है यह जानने के लिए कुछ स्वयंसेवकों से प्रश्न भी पूछे. तब, “ये महार, ये ब्राह्मण, ये मराठा, ये दर्जी ऐसा भेदभाव हम नही मानते. हमारे बगल मे किस जाति का स्वयंसेवक बैठा है इसकी कोई जानकारी हमे नही रहती और ना ही वैसी जानकारी लेने की हम में से किसी की भी इच्छा रहती है. हम सब हिंदू है और इसीलिए बंधू है. अतः आपसी व्यवहार में उंच-नीच सोच रखने की कल्पना भी हम नही करते.” इस प्रकार के उत्तर महात्माजी को स्वयंसेवकों से मिले.
*यह है डॉक्टर हेडगेवार जी का हिंदुत्व. बिलकुल सीधा और सरल. “हम सब हिंदू है, इसलिये बंधू है” इस एक वाक्य ने हिंदूओंका संगठन खडा किया, जो आज विश्व का सबसे बडा संगठन है.*
डॉक्टर जी के संपूर्ण कार्यकाल में वह तात्विक या बौद्धिक विवादोंमे बहुत ज्यादा नही उलझे. उनका जोर, प्रत्यक्ष कार्य पर था. संघ प्रारंभ होने से पहले उन्होने ऐसे सभी विचार प्रवाहों का विस्तृत अध्ययन किया था. हिंदू समाज की कमियां, मुस्लिम आक्रांताओं के कारण हिंदू समाज मे आई हुई कुरीतियां, कुछ प्राचीन, अप्रासंगिक परंपराएं… इन सबसे वे अच्छी तरह परिचित थे. किंतु इन सब बातों के विरोध में बोलते रहने की अपेक्षा प्रत्यक्ष कार्य कर, कृती रूप उत्तर देने मे उनका विश्वास था.
विभिन्न वैचारिक प्रवाहोंमें, संस्थाओंमें, राजनैतिक दल में कार्य करने के कारण उनके विचारों मे पारदर्शिता और स्पष्टता थी. ‘क्या करना है’ यह उनको अवगत था. इसलिये संघ स्थापना के बाद उनके 15 वर्षों के कालखंड में, और बाद में भी, संघ पर अनेक संकट आने के बावजूद संघ बढता ही रहा. संघ के प्रारंभिक काल से इस बात की स्पष्टता थी, की संघ का संगठन, हिंदूओंके संरक्षण के लिए बना हुआ कोई रक्षक दल नही है. इसका अर्थ ऐसा की हिंदू समाज ने अपने संरक्षण के लिये संघ को, आज की भाषा में, ‘आऊटसोर्स’ किया हुआ नही है. संघ के स्वयंसेवक संकटोंका सामना करेंगे, संघर्ष करेंगे और बाकी हिंदू समाज इस संघर्ष की मजा देखता रहेगा, यह उन्हे अभिप्रेत नही था.
*संघ का उद्देश्य यह हिंदू समाज का संगठन कर संपूर्ण समाज को सक्षम बनाना यह था / है. इसलिये ‘समाजही सब कुछ करेगा’ यह भूमिका पहले से आज तक कायम है. यही संघ के यश का सूत्र भी रहा है. संघ ने सही अर्थों में हिंदू समाज का सक्षमीकरण (empowerment) करना यह डॉक्टर हेडगेवार जी को अभिप्रेत था.* इसलिये 1925 के बाद इस देश पर आये हुए सभी संकटोंका सामना संघ ने पुरे समाज को साथ लेकर किया है. दो – तीन वर्ष पहिले के करोना मे भी संघ स्वयंसेवकोने आगे बढकर अनेक काम किये. किंतु संघ ने कोरोना के इस संघर्ष में संपूर्ण समाज को साथ लेकर सक्रिय किया.
और यही डॉक्टर हेडगेवार जी की दूरदृष्टी सामने आती है. हिंदू संगठन की रचना बनाते समय उन्होंने अत्यंत स्पष्ट और साफ शब्दों मे कहा था, *“हमे पुरे हिंदू समाज का संगठन करना है, समाज में संगठन नही करना है”.* यह अत्यंत महत्वका सूत्र है. डॉक्टर जी के पहले भी हिंदू समाज मे हिंदू हितों के लिए काम करने वाली अनेक संस्थाये और संगठन तयार हुए थे. किंतु इन सबकी मर्यादाएं थी. समाज के एक प्रवाह जैसे यह संगठन / संस्थाये थी. किंतु प्रारंभसे ही डॉक्टरजीने संघ को हिंदू समाज का एक पंथ या प्रवाह न बनाते हुए, ‘संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन’ इसी स्वरूप मे खडा किया. इसलिये पहले जो संघ के विरोधक थे, वही बाद में संघ के सक्रिय स्वयंसेवक बने.
हिंदूओं का संगठन यह असंभव कल्पना है, ऐसा पहले बोला जाता था. किंतु डॉक्टर हेडगेवार जी ने इस बात को गलत सिद्ध करके बताया. संपूर्ण हिंदू समाज का संगठन करने के लिये उन्होने जो संघ की कार्यपद्धती बनायी, उसकी विश्व मे कोई तुलना ही नही है. इसके कारण एकरूप, एकसमान सोच के, अपनी भारत माता को वैभव के परम शिखर पर पहुंचाने के ध्येय से प्रेरित, ऐसे करोडो हिंदुओं का, विश्व का सबसे बडा संगठन खडा हुआ. यह संगठन, डॉक्टर जी की मृत्यु के पश्चात भी 83 वर्ष सतत वर्धिष्णू हो रहा है.
दूरदृष्टी के, भविष्य को देखने की क्षमता रखने वाले डॉक्टर हेडगेवार जी का यह निर्विवाद यश है..!
– प्रशांत पोळ
_(‘विवेक प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित ‘हिन्दुत्व’ इस ग्रंथ मे प्रकाशित आलेख के कुछ अंश)_