मेरे पिता झंग-मधुआणा के जमींदार हिंदू परिवार के सबसे छोटे पुत्र थे। तब वे गांव के स्कूल में ही छठी कक्षा में पढ़ते थे। एक दिन स्कूल में ब्रिटिश इंडियन एजुकेशन सर्विस के अधिकारी आए तो उनका ध्यान हॉकी खेलते पिता जी की ओर गया। उन्होंने कुछ सामान्य सवाल पूछे और पिता जी ने आगे पढ़ने की अपनी दृढ़ इच्छा व्यक्त करते हुए कहा कि वे गांव में रहकर पीछे छूटना नहीं चाहते। इससे वे अधिकारी प्रभावित हुए और पिता जी को आगे अंग्रेजी में पढ़ाई करने के लिए लाहौर भेजा गया, जबकि उस इलाके में उस समय तक शायद ही किसी ने इंटरमीडिएट या मैट्रिकुलेशन की पढ़ाई की थी। ज्यादातर पुरुष चौथी-छठी कक्षा तक की शिक्षा पाने के बाद खुशी-खुशी खेतीबाड़ी में जुट जाते थे।
बाद में पिताजी हॉकी के अतिरिक्त बॉक्सिंग में भी अच्छा करने लगे। एक बार घुड़सवारी के दौरान उन्हें चोट लग गई और अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। वहीं उन्होंने डॉक्टर बनने का इरादा किया और अमृतसर से डॉक्टरी की पढ़ाई की। पिता जी ने वह सब किया जो जरूरी था। वे जीवन के उतार-चढ़ाव के बीच नए लोगों से मिलते और उनसे सीखने की कोशिश करते। फिर उनका दिल किया अलवर के राजघराने के साथ काम करने का और वे वहीं चले गए।
उनके कई सगे-संबंधी भारत के दूसरे हिस्सों में चले गए थे। उनके दूर के एक चाचा रंगून भी जा चुके थे। वे इस्तेमाल शुदा कार और ट्रक खरीदने वहां गए थे, जिन्हें वे रावलपिंडी होते हुए कलकत्ता लाए थे। लेकिन उनके अपने परिवार, खास तौर पर ददिहाल से कोई भी व्यक्ति तब तक मुलतान से आगे नहीं गया था। इस सिलसिले को पिता जी ने तोड़ा। कुछ ही साल बाद वे सेना में शामिल हुए और बलूच रेजिमेंट के पैदल दस्ते का अंग बने। अंग्रेजों ने बलूच रेजिमेंट का प्रयोग यह जानने के लिए किया था कि मुस्लिम, सिख और हिंदू सैनिक एक साथ काम कर सकते हैं या नहीं। इस रेजिमेंट के अधिकारियों का चयन बड़ी सावधानी से किया गया था क्योंकि तब भारतीय सेना के रेजिमेंट पंथ, क्षेत्र या जाति के आधार पर ही बनते थे। इस दौरान पिता जी ने उत्तर-पूर्व से लेकर बर्मा, सिंगापुर, सीलोन में हुई लड़ाइयों में भाग लिया और फिर द्वितीय विश्व युद्ध के चक्कर में सैन फ्रांसिस्को तक गए।
देश विभाजन से जुड़े पिता जी के अपने अनुभव हैं। तब वे नए-नए कैप्टन बने थे—कैप्टन लखनलाल मलिक। 14 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान बनने के बाद कराची के फ्लैग हाउस में झंडे को सलामी देते वक्त वे जिन्ना की बगल में थे। शाम होते-होते उन्हें एहसास हुआ कि ये ‘मलिक’ तो हिंदू था, तब उनकी जगह उनके दोस्त कैप्टन साकत अली को तैनात किया गया। इतिहास में यह समय भ्रम का था। पता नहीं था कि विभाजन से क्या कुछ होने वाला है और यह माना जा रहा था कि दोनों देशों की सेनाएं एक ही रहेंगी।
बलूच रेजिमेंट में पिता जी के साथ काम करने वालों, खासतौर पर कर्नल इब्राहिम हबीबुल्लाह और मेजर जॉन दलवी जैसे वरिष्ठों ने जिनकी दिलचस्पी पाकिस्तान के मुकाबले भारत में अधिक थी, उन्हें समझाते हुए कहा, ”ये आप क्या कर रहे हैं, अपने परिवार को बचाओ और निकलो यहां से।” अच्छा रहा कि पिता जी ने वैसा ही किया और इसमें अलवर के राजघराने से भी मदद मिली। अगले ही दिन मेरी मां बम्बई जाने वाले हवाई जहाज पर सवार थीं और फिर वे अलवर, दिल्ली, रुड़की, रामगढ़ कैंट, अमृतसर, उज्जैन, धनबाद होते हुए कलकत्ता पहुंचीं जहां अप्रैल, 1948 में मेरी बड़ी बहन का जन्म हुआ। इस बीच मेरे पिता वापस गांव गए और वहां से करीब 300 लोगों ने पश्चिमी पाकिस्तान से भारत का रुख किया। कुछ दिनों बाद उनमें से 200 लोग दिल्ली पहुंचे। वह बड़ा ही उथल-पुथल भरा समय था। पिता जी को कश्मीर, रुड़की और फिर दिल्ली भेजा गया। मेरी मां से उनकी मुलाकात कभी-कभार ही हो पाती थी। वे अपने वृहद परिवार के लोगों के पुनर्वास में जुटे हुए थे। मुझे याद है, पिता जी कहा करते थे कि हमारा सारा सामान चार ट्रंक में आ गया था और उनमें भी दो ट्रंक में तो उनकी यूनिफॉर्म और जूते थे। फ्रिज को छोड़कर हम सारा सामान इन्हीं ट्रंकों में रख देते और फिर इन पर गद्दा डालकर फर्नीचर के रूप में करते। जाड़े में इस्तेमाल हर शाम इन गद्दों को उतारकर हमारे सोने के बिस्तर तैयार किए जाते। दिन होते ही इन्हें दोबारा ट्रंकों पर डाल दिया जाता जिससे घर आने वाले मेहमान वगैरह उस पर बैठ सकें।
कई रेजिमेंट में रहते हुए पिता जी की तैनाती भारत के विभिन्न इलाकों में हुई और इस दौरान उल्लेखनीय काम करने के कारण उनकी जल्दी-जल्दी पदोन्नति होती गई, 1956 तक वे कर्नल बन चुके थे। उसके बाद नागालैंड में विद्रोही नेता फिजो से जुड़े एक मामले में पासा उलटा पड़ जाने के कारण उन्हें दो रैंक नीचे कर दिया गया, और वे फिर से मेजर बन गए। इसका सीधा सा अर्थ था कि सेना में उनका कॅरियर खत्म हो गया था। उसके बाद उन्होंने कुछ समय जासूसी सरीखे काम किए, फिर 1967 के बाद दिल्ली जाकर ओबेरॉय के ईस्ट इंडिया होटल्स के साथ जुड़ गए। पिता जी आमतौर पर वही करते थे, जो उनका दिल कहता। लेकिन एक बार फिर, नियति ने उनके लिए कुछ और ही तय कर रखा था।
लाला लाजपतराय अपने समकालीन नेताओं को मजबूत बनने के लिए लगातार प्रेरित करते थे। पिता जी भी कुछ ऐसा ही कहा करते थे। वे कहते कि खुद को मजबूत बनाने में जुट जाओ, देश छोड़कर एक वैश्विक नागरिक बनना है या फिर यहीं रहकर कुछ करना है, इसका फैसला समय और किस्मत पर छोड़ देना चाहिए। मेरे ददिहाल-ननिहाल के सदस्यों ने ठीक ऐसा ही किया। हां, यहां एक और बात का जिक्र जरूरी है। मेरे एक मामा थे जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में वरिष्ठ कार्यकर्ता थे। तब संघ प्रतिबंधित था। वे अक्सर हमसे छिपकर मिलने आते थे। वे कहते भी थे कि शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत बनो, सबसे जरूरी है आर्थिक रूप से संपन्न होना। एक व्यक्ति, एक समुदाय के नाते मजबूत हो जाओ, फिर देश-समाज के लिए कुछ करो।
सेना छोड़ने के बाद मेरे पिता भी खासतौर पर यही सब समझाते। वे कहते कि एक समुदाय के रूप में आर्थिक रूप से मजबूत होने के लिए हमें खान-पान और जीवनशैली से जुड़ी आदतों को दुरुस्त करना होगा। मुझे अच्छी तरह याद है कि हम देश में जहां भी गए, हमारे यहां बाजरे जैसा बिसरा दिया गया अनाज मिला गेहूं ही उपलब्ध था, जिसमें गेहूं की मात्रा 30 प्रतिशत से अधिक नहीं होती थी। यहां तक कि ‘हलवा’ भी मैदा या आटा से नहीं बनता था। जहां तक चावल की बात है, जब भी हमें दूसरों के घर खाने का मौका मिलता, हम सफेद पॉलिश किए चावलों पर टूट पड़ते जबकि पिता जी खोज-खोजकर बिना पॉलिश वाले चावल लेकर आते। उसी तरह सफेद चीनी और सफेद नमक के लिए भी हमारे घर में कोई जगह नहीं थी। अगर हमें शक्तिशाली भारतीय बनना है तो हमें भी अपनी थाली से इस ‘सफेद शैतान’को हटाना होगा। पिता की सौवीं जयंती पर मैं अपनी पत्नी और बेटी के साथ इसी परंपरा को आगे बढ़ा रहा हूं और हमने इस मौके पर वितरित की गई मिठाई गहरे भूरे गुड़ से बनवाई।
साभार – पाञ्चजन्य