जयपुर (विसंकें). छोटा कद, पर ऊंचे इरादों वाले ज्योति जी का जन्म 24 जुलाई, 1928 को अशोक नगर (जिला एटा, उत्तर प्रदेश) में हुआ था. इनका परिवार मूलतः इसी जिले के अवागढ़ का निवासी था, पर पिताजी नौकरी के लिए अशोक नगर आ गये थे. छात्र जीवन में ही उनका संपर्क संघ से हुआ और फिर वह उनके मन और प्राण की धड़कन बन गया. बचपन में ही माता-पिता के देहांत के बाद एक बड़ी बहन ने उनका पालन किया. एटा से कक्षा दस उत्तीर्ण कर वे बरेली आ गये. यहां संघ कार्यालय में रहकर, सायं शाखा चलाते हुए ट्यूशन पढ़ाकर उन्होंने बीए किया और प्रचारक बन गये. संघ के पैसे से पढ़ना या पढ़ते समय प्रचारकों की तरह परिवारों में भोजन करना उन्हें स्वीकार नहीं था. छात्र जीवन में निर्मित संघर्ष और स्वाभिमान की यह प्रवृत्ति उनमें सदा बनी रही.
प्रचारक जीवन में वे कई वर्ष अल्मोड़ा के जिला प्रचारक रहे. कुमाऊं के पहाड़ों को कई बार उन्होंने अपने पैरों से नापा. नयी भाषा सीखकर उसे बेझिझक बोलना उनके स्वभाव में था. बरेली में रतन भट्टाचार्य जी के सान्निध्य में उन्होंने बंगला, तो नागपुर आते-जाते मराठी सीख ली. इसी प्रकार ब्रज, कुमाऊंनी, हिमाचली,
डोगरी, पंजाबी, भोजपुरी आदि भी खुलकर बोलते थे. नवयुवकों के हृदय में संघ-ज्योति प्रज्वलित करने के वे माहिर थे. उनमें भविष्य के प्रचारकों को पहचानने की अद्भुत क्षमता थी. इसके लिए प्रथम श्रेणी के छात्रों पर वे विशेष ध्यान देते थे. वे जहां भी रहे, लम्बे समय तक काम करने वाले प्रचारकों की एक बड़ी टोली उन्होंने निर्माण की.
वे जल्दीबाजी की बजाय कार्यकर्ता को ठोक बजाकर ही प्रचारक बनाते थे. वर्ष 1970-71 में वे विभाग प्रचारक बनकर मेरठ आये. आपातकाल में वे कुलदीप के छद्म नाम से प्रवास करते थे. वे जेल में कई बार कार्यकर्ताओं से मिलकर आते थे, वहां प्रायः उनके पत्र भी पहुंचते थे, पर पुलिस वाले उन्हें नहीं पा सके.
मेरठ विभाग, संभाग, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सहप्रांत प्रचारक, हिमगिरी प्रांत और फिर वे काशी में प्रांत प्रचारक रहे. प्रवास करते समय वे दिन-रात या छोटे-बड़े वाहन की चिन्ता नहीं करते थे. उनके एक थैले में कपड़े और दूसरे में डायरी, समाचार पत्र आदि होते थे. वे हंसी में इन्हें अपना घर और दफ्तर कहते थे.
काशी में उनके जीवन में एक बहुत विकट दौर आया. उनके दोनों घुटनों में चिकित्सा के दौरान भारी संक्रमण हो गया. कुछ चिकित्सक तो पैर काटने की सलाह देने लगे, पर ईश्वर की कृपा और अपनी प्रबल इच्छा शक्ति के बल पर वे ठीक हुए और पहले की ही तरह दौड़ भाग प्रारम्भ कर दी. ज्योति जी कार्यकर्ता से व्यक्तिगत वार्ता पर बहुत जोर देते थे. इसके लिए वे छात्रों के कमरों या नये प्रचारकों के आवास पर रात में दो-तीन बजे भी पहुंच जाते थे. उनके भाषण मुर्दा दिलों में जान फूंक देते थे. ‘एक जीवन, एक लक्ष्य’ उनका प्रिय वाक्य था.
अंग्रेजी भाषा पर उनका अच्छा अधिकार था. प्राध्यापकों आदि से धाराप्रवाह अंग्रेजी में बात कर वे अपनी धाक जमा लेते थे. वे युवा कार्यकर्ताओं को अंग्रेजी समाचार पत्र बोलकर पढ़ने और उन्हें सुनाने को कहते थे तथा बीच-बीच में उसका अर्थ भी पूछते और समझाते रहते थे. पढ़ने और लिखने का उनका प्रारम्भ से ही स्वभाव था. जीवन के अंतिम कुछ वर्ष में वे स्मृति लोप के शिकार हो गये. वे नयी बात या व्यक्ति को भूल जाते थे, पर पुराने लोग, पुरानी बातें उन्हें अच्छी तरह याद रहती थीं. इसी बीच उनकी आहार नली में कैंसर हो गया. इसी रोग से 27 मार्च, 2010 को मेरठ में संघ कार्यालय पर ही उनका देहांत हुआ. देहांत के बाद उनकी इच्छानुसार उनके नेत्रदान कर दिये गये.