भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में वन्देमातरम् नामक जिस महामन्त्र ने उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक जन-जन को उद्वेलित किया, उसके रचियता बंकिमचन्द्र चटर्जी का जन्म ग्राम कांतलपाड़ा, जिला हुगली, पश्चिम बंगाल में 26 जून, 1838 को हुआ था. प्राथमिक शिक्षा हुगली में पूर्ण कर उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रेसीडेंसी कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त की. पढ़ाई के साथ-साथ छात्र जीवन से ही उनकी रुचि साहित्य के प्रति भी थी.
शिक्षा पूर्ण कर उन्होंने प्रशासनिक सेवा की परीक्षा दी और उसमें उत्तीर्ण होकर वे डिप्टी कलेक्टर बन गये. सेवा में आने वाले वे प्रथम भारतीय थे. नौकरी के दौरान ही उन्होंने लिखना प्रारम्भ किया. पहले वे अंग्रेजी में लिखते थे. उनका अंग्रेजी उपन्यास ‘राजमोहन्स वाइफ’ भी खूब लोकप्रिय हुआ, पर आगे चलकर वे अपनी मातृभाषा बंगला में लिखने लगे. 1864 में उनका पहला बंगला उपन्यास ‘दुर्गेश नन्दिनी’ प्रकाशित हुआ. यह इतना लोकप्रिय हुआ कि इसके पात्रों के नाम पर बंगाल में लोग अपने बच्चों के नाम रखने लगे. इसके बाद 1866 में ‘कपाल कुण्डला’ और 1869 में ‘मृणालिनी’ उपन्यास प्रकाशित हुए. 1872 में उन्होंने ‘बंग दर्शन’ नामक पत्र का सम्पादन भी किया, पर उन्हें अमर स्थान दिलाया ‘आनन्द मठ’ नामक उपन्यास ने, जो 1882 में प्रकाशित हुआ.
आनन्द मठ में देश को मातृभूमि मानकर उसकी पूजा करने और उसके लिए तन-मन और धन समर्पित करने वाले युवकों की कथा थी, जो स्वयं को ‘सन्तान’ कहते थे. इसी उपन्यास में वन्देमातरम् गीत भी समाहित था. इसे गाते हुए वे युवक मातृभूमि के लिए मर मिटते थे. जब यह उपन्यास बाजार में आया, तो वह जन-जन का कण्ठहार बन गया. इसने लोगों के मन में देश के लिए मर मिटने की भावना भर दी. वन्देमातरम् सबकी जिह्ना पर चढ़ गया. 1906 में अंग्रेजों ने बंगाल को हिन्दू तथा मुस्लिम आधार पर दो भागों में बांटने का षड्यन्त्र रचा. इसकी भनक मिलते ही लोगों में क्रोध की लहर दौड़ गयी. 7 अगस्त, 1906 को कोलकाता के टाउन हाल में एक विशाल सभा हुई, जिसमें पहली बार यह गीत गाया गया. इसके एक माह बाद 7 सितम्बर को वाराणसी के कांग्रेस अधिवेशन में भी इसे गाया गया. इससे इसकी गूंज पूरे देश में फैल गयी. फिर क्या था, स्वतन्त्रता के लिए होने वाली हर सभा, गोष्ठी और आन्दोलन में वन्देमातरम् का नाद होने लगा.
यह देखकर शासन के कान खड़े हो गये. उसने आनन्द मठ और वन्देमातरम् गान पर प्रतिबन्ध लगा दिया. इसे गाने वालों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे जाते थे, लेकिन प्रतिबन्धों से भला भावनाओं का ज्वार कभी रुक सका है ? अब इसकी गूंज भारत की सीमा पारकर विदेशों में पहुंच गयी. क्रान्तिवीरों के लिए यह उपन्यास गीता तथा वन्देमातरम् महामन्त्र बन गया. वे फांसी पर चढ़ते समय यही गीत गाते थे. इस प्रकार गीत ने भारत के स्वाधीनता संग्राम में अतुलनीय योगदान दिया.
बंकिम के प्रायः सभी उपन्यासों में देश और धर्म के संरक्षण पर बल रहता था. उन्होंने विभिन्न विषयों पर लेख, निबन्ध और व्यंग्य भी लिखे. इससे बंगला साहित्य की शैली में आमूल चूल परिवर्तन हुआ. 8 अप्रैल, 1894 को उनका देहान्त हो गया. स्वतन्त्रता मिलने पर वन्देमातरम् को राष्ट्रगान के समतुल्य मानकर राष्ट्रगीत का सम्मान दिया गया.