पं. गिरिराज प्रसाद शास्त्री दादाभाई की पुण्यतिथि पर पावन स्मरण व वंदन

bd76cee7-8012-4c22-a407-d90e53134ce4 (1)आज चारों ओर अंग्रेजीकरण का वातावरण है. संस्कृत को मृत भाषा मान लिया गया है. ऐसे में गिरिराज शास्त्री जी (दादा भाई) ने संस्कृत की मासिक पत्रिका ‘भारती’ का कुशल संचालन कर लोगों को एक नयी राह दिखाई है. दादा भाई का जन्म नौ सितम्बर, 1919 (अनंत चतुर्दशी) को राजस्थान के भरतपुर जिले के कामां नगर में आचार्य आनंदीलाल जी और चंद्राबाई जी के घर में हुआ था. इनके पूर्वज राजवैद्य थे. कक्षा छह के बाद दादा भाई ने संस्कृत की प्रवेशिका, उपाध्याय तथा शास्त्री उपाधियां लीं. यजुर्वेद का विशेष अध्ययन करते हुए उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा भी उत्तीर्ण की. स्वस्थ व सुडौल शरीर होने के कारण लोग इन्हें पहलवान भी कहते थे।
13 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया था. शिक्षा पूर्णकर वे जयपुर के रथखाना विद्यालय में संस्कृत पढ़ाने लगे. वर्ष 1942 में वे जयपुर में ही स्वयंसेवक बने. व्यायाम के शौकीन दादाभाई को शाखा के खेल, सूर्यनमस्कार आदि बहुत अच्छे लगे और वे संघ में ही रम गये. इसके बाद उन्होंने वर्ष 1943, 44 तथा 45 में तीनों संघ शिक्षा वर्ग का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।
स्वाधीनता से पूर्व जयपुर रियासत में संघ पर प्रतिबंध था। अतः शाखाएं ‘सत्संग’ के नाम से लगती थीं। प्रान्त प्रचारक श्री बच्छराज व्यास ने सावधानी रखने के लिए प्रमुख कार्यकर्ताओं को उपनाम दिये थे। गिरिराज जी को उन्होंने ‘दादा भाई’ नाम दिया। तब से उनका यही नाम सब ओर प्रचलित हो गया।
तृतीय वर्ष कर दादा भाई जयपुर नगर कार्यवाह, नगर प्रचारक तथा सीकर और झुंझनु में जिला प्रचारक रहे। प्रतिबंध काल में नौकरी छूटने से सरकार्यवाह श्री एकनाथ रानाडे ने संघ कार्यालय पर उनके रहने की व्यवस्था कर दी। बाबा साहब आप्टे के सुझाव पर दादा भाई के सम्पादन में 1950 की दीपावली से देश की प्रथम मासिक संस्कृत पत्रिका ‘भारती’ प्रारम्भ हो गयी।
1953 से 92 तक दादा भाई राजस्थान के प्रान्त कार्यवाह रहे। इस दौरान श्री गुरुजी के 51 वें जन्मदिवस पर हुए धनसंग्रह, गोरक्षा हेतु हस्ताक्षर संग्रह, स्वामी विवेकानंद एवं श्री अरविन्द की जन्मशती, श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन आदि में दादा भाई की सक्रिय भूमिका रही। 1975 के प्रतिबंध काल में दादा भाई वेश बदलकर पूरे प्रान्त में घूमते रहे। पुलिस लाख प्रयास करने पर भी उन्हें पकड़ नहीं सकी। 1990 में कारसेवा के लिए अयोध्या जाते समय उन्हें मथुरा के नरहोली थाने में 15 दिन तक बन्दी बनाकर रखा गया।
1992 में उनके स्वास्थ्य के ढीलेपन को देखकर उन्हें क्रमशः प्रान्त संपर्क प्रमुख, क्षेत्र प्रचार प्रमुख तथा फिर क्षेत्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बनाया गया। 1997 से 2006 तक वे ‘पाथेय कण संस्थान’ के अध्यक्ष भी रहे। इस सबके बीच भारती पत्रिका की ओर उनका पूरा ध्यान रहता था।
2009 में उनके 90 वर्ष पूर्ण होने पर आयोजित समारोह में सरसंघचालक श्री मोहन भागवत, उपराष्ट्रपति श्री भैरोंसिंह शेखावत, डा’ मुरली मनोहर जोशी आदि गण्यमान्य लोग सम्मिलित हुए। इसके बाद दादा भाई की देह शिथिल होती गयी और 13 मार्च, 2012 को ब्रह्ममुहूर्त में उनका प्राणान्त हो गया। दादा भाई ने जीते जी देहदान का संकल्प पत्र भर दिया था। अतः उनकी देह छात्रों के उपयोग हेतु चिकित्सा महाविद्यालय को समर्पित कर दी गयी।

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