जयपुर (विसंकें). अस्पृश्यता, जातिभेद तथा ऊंचनीच हिन्दू परम्परा का अंग नहीं हैं. यह बीमारियां मुसलमान आक्रांताओं की देन हैं, जिन्हें अंग्रेजों ने अपने हित के लिए खूब हवा दी. इस विचार को समाज में स्थापित कर समरसता अभियान को नयी दिशा देने वाले रामफल सिंह जी का जन्म ग्राम मऊ मयचक (अमरोहा, उत्तर प्रदेश) में अगस्त, 1934 में दलसिंह जी के घर में हुआ था. छात्र जीवन में उनका संपर्क संघ और अशोक सिंहल जी से हुआ. इस बीच घर वालों ने उनका विवाह निश्चित कर दिया, पर विवाह से कुछ दिन पूर्व ही वे घर छोड़कर संघ के प्रचारक बन गये और फिर 20 साल बाद घर लौटे.
सहारनपुर, रुड़की, बाराबंकी, फरूखाबाद, कानपुर आदि में संघ कार्य करने के बाद वे छह वर्ष तक हिमाचल प्रदेश में संभाग प्रचारक रहे. वर्ष 1991 में उन्हें विश्व हिन्दू परिषद के कार्य में भेजा गया. प्रारम्भ में वे उत्तर प्रदेश एवं मध्य प्रदेश के संगठन मंत्री रहे. रामजन्मभूमि आंदोलन में इन राज्यों के रामभक्तों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया. कुछ वर्ष बाद उन्हें विश्व हिन्दू परिषद का केन्द्रीय मंत्री और सामाजिक समरसता आयाम का प्रमुख बनाकर दिल्ली बुला लिया गया. यह काम कुछ अलग प्रकार का था. निर्धन, निर्बल, वनवासियों, वंचित जातियों और जनजातियों को सेवा कार्य द्वारा समाज की मुख्यधारा में लाना इसका एक पहलू था, पर रामफल जी का ध्यान इसके दूसरे पहलू पर गया और वे इस बारे में शोध व अध्ययन करने लगे.
शोध के दौरान उनके ध्यान में आया कि हिन्दू समाज के जिन वर्गों को अस्पृश्य या निम्न माना जाता है, वे सब वस्तुतः क्षत्रिय हैं. उन्होंने ही मुगल आक्रमणों को अपने सीने और तलवारों पर झेला था. युद्ध में सफल होकर मुगलों ने व्यापक धर्मान्तरण किया. धर्मान्तरित लोगों को धन, धरती और दरबार में ऊंचा स्थान दिया गया, पर जिन्होंने किसी भी लालच, भय और दबाव के बावजूद अपना धर्म नहीं छोड़ा, उनके घर, दुकान और खेती की जमीनें छीन ली गयीं. उन्हें मानव मल साफ करने जैसा गन्दा काम करने और गांव से बाहर रहने को मजबूर किया गया.
सैकड़ों साल तक, पीढ़ी दर पीढ़ी यही काम करते रहने से वे हिन्दू समाज की मुख्य धारा से कट गये. उनकी आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक स्थिति खराब हो गयी. लोग उन्हें हीन मानकर उनसे दूर रहने लगे. इसी में से फिर छुआछूत और अस्पृश्यता का जन्म हुआ. रामफल जी ने इन तथ्यों के आधार पर अनेक पुस्तकें लिखीं. छुआछूत गुलामी की देन है, आदिवासी या जनजाति नहीं, ये हैं मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानी, सिद्ध संत गुरू रविदास, प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. भीमराव आंम्बेडकर, समरसता के सूत्र, घर के दरवाजे बन्द क्यों, सोमनाथ से अयोध्या-मथुरा-काशी, और मध्यकालीन धर्मयोद्धा उनकी बहुचर्चित कृतियां हैं.
उन्होंने अध्ययनशील लोगों को इस विषय में और अधिक शोध के लिए प्रेरित भी किया. इसके लिए उन्होंने देशभर में प्रवास कर सभी राज्यों में इन जातियों, जनजातियों के इतिहास को उजागर किया. इससे इन वर्गों का खोया आत्मविश्वास वापस आया. उनमें नयी चेतना जाग्रत हुई तथा कार्यकर्ताओं को बहुत सहयोग मिला. लगातार प्रवास से उनके यकृत (लीवर) में कई तरह के रोग उभर आये. काफी इलाज के बाद भी वे नियन्त्रित नहीं हो सके और 9 जून, 2010 को दिल्ली के एक चिकित्सालय में उनका शरीरांत हुआ.
समरसता के काम में उनके मौलिक चिन्तन, अध्ययन और शोध से जो नये अध्याय जुड़े, वे आज भी सबके लिए दिशा सूचक एवं प्रेरक हैं.