राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन को सन्दर्भ बनाकर, ‘‘टाॅयलेट एक प्रेम कथा’’ फिल्म बनायी गयी है। जो कि एक ठण्डे और ताजी हवा के झौंके जैसी लगती है। इस फिल्म की कहानी में एक नवविवाहिता कुछ दिनों में ही पति का घर छोड़ देती है, क्योंकि घर में शौचालय नहीं है। अपनी पत्नी के प्रेम को पाने के लिये पति का व्यवस्था और परम्पराओं से संघर्ष का बारिकी से चित्रण है। ऐसे विषय पर फिल्म बनाना दुःसाहस है। खान बन्धुओं की तरह ही अक्षय कुमार बढ़ती उम्र के कारण, प्रेम या विवाह जैसे रोल करते अच्छे नहीं लगते, किन्तु फिल्म की कहानी की सार्थकता दर्शकों को प्रभावित करती है।
वास्तविक सामाजिक परिस्थितियों का मनोरंजनात्मक चित्रण है। फिल्म की हिरोइन सामाजिक परम्पराओं के विरूद्ध बगावती तेवरों की है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह सांस्कृतिक मूल्यों और परम्पराओं का आदर नहीं करती है। वह शौचालय की मांग भी करती है, तो बड़े और बुजुर्गों के पांव भी छूती है। यह फिल्म कम बजट की है, 18 करोड़ रूपये और पब्लिसिटी का बजट भी सीमित रहा है, फिर भी पहले 3 दिन में क्रमशः 13, 17 और 50 करोड़ रूपयों का कलेक्शन रहा है।
फिल्म में कई मल्टीनेशनल ब्राॅन्ड नेम को प्रमोट किया गया है, फिल्म की लागत और आर्थिक जोखिम कम करने का अच्छा तरीका है। अधिकांश तौर पर बाॅलीवुड इन विषयों पर कार्य कम करते हैं सरकार जब अभियानों द्वारा जनता के जीवन जीने की आदतों को बदलने का प्रयास कर रही है, तब बाॅलीबुड का वास्तविक घटना पर आधारित इस प्रकार की फिल्म बनाकर समर्थन देना, नयी शुरूआत है। समाज को सन्देश देने वाला सार्थक सिनेमा और विशुद्ध मनोरंजन के लिए बनाये जाने वाले सिनेमा के बीच की विभाजन रेखा धुमिल होती जा रही है।
पठकथा लेखकद्वय सिद्धार्थ-गरिमा का फिल्म पर पूर्ण नियंत्रण है। उनके लिखे संवाद दर्शक को अन्दर तक हिला देते हैं और अच्छी फिल्म का उद्देश्य भी यही होता है। ‘‘जिस आंगन में तुलसी लगाते हैं, वहाँ शौच करना शुरू कर दें ?’’ ‘‘बीबी वापस आये चाहे ना आये गांव में तो सण्डास बनकर ही रहेगा।’’ इस देश में 50 प्रतिशत लोग खुले में शौच करते है, पब्लिक हाईजीन के अभाव में एक हजार बच्चे रोज उल्टी-दस्त से मर जाते है। समस्या के प्रति जन जागरूकता फैलाने वाली इस प्रकार की फिल्म की आवश्यकता थी।
श्रीनारायण सिंह के निर्देशन में कसावट है अक्षय कुमार, भूमि पढ़नेकर, अनुपम खेर का अभिनय, प्रभावशाली है। 2 घण्टे 41 मिनिट लम्बी फिल्म, 15-20 मिनिट छोटी होती तो अच्छा रहता । गाँव-गाँव तक मोबाईल व इन्टरनेट पहुंच गये, पर शौचालय नहीं। यह देश की वास्तविक और मनोरंजक स्थिति है। हालांकि हम बड़े शहरों में रहने के कारण इस प्रकार की समस्यायें नहीं देखते हैं, किन्तु हास्य विनोद से भरी यह मनोरंजक फिल्म दर्शकों का पैसा, समय और पाॅपकाॅर्न वसूल कराती है।