कारगिल युद्ध के अमर बलिदानी – कैप्टन विजयंत थापर, मेजर पद्मपाणि आचार्य, कैप्टन नेइकझुको केंगरुस, मेजर अजय सिंह जसरोटिया

अमर बलिदानी कैप्टन विजयंत थापर

कैप्टन विजयंत थापर की बटालियन ने जब 13 जून 1999 को तोलोलिंग जीता, तब वो कारगिल में भारतीय सेना की पहली बड़ी विजय थी.

22 साल की उम्र में अमर बलिदानी विजयंत थापर ने जी भर के ज़िन्दगी जी. खेले, प्यार किया, अपनी पसंद के पेशे को चुना और जब मौका आया, वतन के लिए जान देने से पीछे नहीं हटे. 26 दिसंबर 1976 को जन्मे विजयंत सैनिक परिवार से थे. परदादा डॉ. कैप्टन कर्ता राम थापर, दादा जेएस थापर और पिता कर्नल वीएन थापर सब फौज में थे. इसलिए विजयंत क्या बनेंगे, ये सवाल कभी उनके मन में उठा ही नहीं. वो ‘बॉर्न सोल्जर’ थे. जब उनके पिता रिटायर हुए, लगभग तभी उन्होंने कमिशन लिया, 2 राजपूताना राइफल्स में, दिसंबर 1998 में. तब से बमुश्किल 6 महीने पहले जब पाकिस्तान ने वादाखिलाफ़ी करते हुए गैरकानूनी ढंग से कारगिल की चोटियों पर कब्ज़ा कर लिया. कुपवाड़ा में आतंक विरोधी अभियान चला रही विजयंत की यूनिट को घुसपैठियों को भगाने तोलोलिंग की ओर द्रास भेजा गया.

इसके बाद उन्हें नोल एंड लोन हिल पर ‘थ्री पिम्पल्स’ से दुश्मन को खदेड़ने की ज़िम्मेदारी मिली. चांदनी रात में पूरी तरह से दुश्मन की फायरिंग रेंज में होने के बावजूद विजयंत आगे बढ़ते रहे. विजयंत थापर ‘थ्री पिम्पल्स’ जीत गए, लेकिन इस अभियान में देश ने अमर सपूत विजयंत को खो दिया. उन्होंने अपना सर्वोच्च बलिदान दिया.

मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित कैप्टन विजयंत थापर ने बलिदान से पहले 13 जून 1999 को तोलोलिंग की पहाड़ियों पर जीत का झंडा फहराया था. ये महत्वपूर्ण जीत करगिल की जंग के दौरान भारत के लिए निर्णायक साबित हुई.

कैप्टन विजंयत के कमरे में वो यूनिफॉर्म आज भी टंगी है, जो उनकी शहादत के बाद करगिल से भेजी गई थी. तोलोलिंग की उस चोटी की तस्वीर भी लगी है, जिस पर उन्होंने जीत का तिरंगा फहराया था. कमरे में शहीद विजयंत की तस्वीरें और उनसे जुड़ी तमाम चीजें आज भी वैसे ही रखी हैं.

अमर बलिदानी कैप्टन नेइकझुको केंगुरुस

जब घायल केंगुरुस ने दुश्मनों को घुटने के बल पर टेकने के लिए मजबूर कर दिया.

वर्ष 1999 में, जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ, तो कप्तान केंगुरुस राजपूताना राइफल्स बटालियन में जूनियर कमांडर थे. अपने दृढ़ संकल्प और कौशल के लिए, उन्हें घातक पलटन बटालियन का मुख्य कमांडर बनाया गया था. शारीरिक रूप से फिट और प्रेरित सैनिक ही इस पलटन में जगह बना सकते हैं. 28 जून 1999 की रात को इस पलटन को ब्लैक रॉक पर दुश्मन द्वारा रखी मशीन गन पोस्ट को हासिल करना था. इसकी फायरिंग के चलते भारतीय सेना उस क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पा रही थी. जैसे ही कमांडो पलटन ने चट्टान को पार किया, उन पर मोर्टार और ऑटोमेटिक गन फायरिंग होने लगी. जिसमें सभी सैनिकों को चोटें आईं. कप्तान केंगुरुस को भी पेट में गोली लगी. अपनी चोट के बावजूद उन्होंने अपनी सेना को आगे बढ़ते रहने को कहा. जब वे अंतिम चट्टान पर पहुंच गए तो उनके और दुश्मन पोस्ट के बीच केवल एक दीवार थी. उनके सैनिक आगे बढ़ें और इस दीवार को भी पार करें, इसके लिए कप्तान केंगुरुस ने एक रस्सी जुटाई. हालाँकि, बर्फीली चट्टान पर उनके जूते फिसल रहे थे. वे चाहते तो आसानी से वापस जाकर अपना इलाज करवा सकते थे. लेकिन कप्तान केंगुरुस ने कुछ अलग करने की ठानी थी. 16,000 फीट की ऊंचाई पर और -10 डिग्री सेल्सियस के ठंडे तापमान में, कप्तान केंगुरुस ने अपने जूते उतार दिए. उन्होंने नंगे पैर रस्सी की पकड़ बना कर आरपीजी रॉकेट लॉन्चर के साथ ऊपर चढ़ाई की.

ऊपर पहुंचने के बाद, उन्होंने सात पाकिस्तानी बंकरों पर रॉकेट लॉन्चर से फायर किया. पाकिस्तान ने गोलीबारी से जवाब दिया, लेकिन उन्होंने भी तब तक गोलीबारी की जब तक कि पाकिस्तानी बंकरों को खत्म नहीं कर दिया. इसी बीच दो दुश्मन सैनिक उनके पास आ पहुंचे थे, जिन्हें उन्होंने लड़ते हुए चाकू से मार गिराया. लेकिन दुश्मन की गोली लगने से वे भी चट्टान से गिर गए. पर, उनके कारण बाकी सेना को दुश्मन पर हमला बोलने का मौका मिल गया. मिशन पूरा करने के बाद जब उनके साथियों ने नीचे गहराई में देखा, जहां उनके कैप्टन साहब का मृत शरीर पड़ा था, तो उन्होंने आंसुओं के साथ ये जीत उन्हें समर्पित की.

 कारगिल में मेजर पद्मपाणि आचार्य का पराक्रम

28 जून 1 999 को, राजपूताना राइफल्स के मेजर पद्मपाणि आचार्य को कंपनी कमांडर के रूप में दुश्मन के कब्जे वाली अहम चौकी को मुक्त कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई. यहां दुश्मन न सिर्फ अत्याधुनिक हथियारों से लैस था, बल्कि माइंस बिछा रखी थी. मेजर पद्मपाणि की अगुवाई में फोर्स ने फायरिंग और गोलों की बारिश के बीच अपना अभियान जारी रखा. मेजर पद्मपाणि को कई गोलियां लग चुकी थीं, इसके बावजूद वो आगे बढ़ते रहे और साहस से पाकिस्तानियों को खदेड़ कर चौकी पर कब्जा किया, हालांकि खुद मेजर पद्मपाणि इस मिशन को पूरा करने के बाद बलिदान हो गए. मेजर पद्मपाणि को पराक्रम के लिए मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया.

अमर बलिदानी मेजर अजय सिंह जसरोटिया

अपनी जान देकर 6 साथियों की जान बचाई

लेह हाईवे पर 17 हजार फीट ऊंची तोलोलिंग चोटी पर कब्जा जमाए बैठे पाकिस्तानी सैनिकों और घुसपैठियों की लगातार जारी बमबारी के बीच मेजर अजय जसरोटिया ने दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब दिया. खुद गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद अपने छह घायल साथियों को बमबारी के बीच से सुरक्षित निकाल कर खुद को मातृभूमि की बलिवेदी को समर्पित कर दिया. मेजर अजय जसरोटिया को ऑपरेशन विजय में अदम्य साहस का प्रदर्शन करने पर सेना मेडल से (मरणोपरांत) सम्मानित किया गया.

13 अप्रैल 1971 में बीएसएफ के डीआईजी रहे अर्जुन सिंह जसरोटिया के घर पैदा हुए मेजर अजय सिंह जसरोटिया के दादा ले. कर्नल खजूर सिंह भी भारतीय सेना में अपनी बहादुरी का परिचय दे चुके थे. अपने परिवार की गौरव गाथा को आगे बढ़ाते हुए 1996 में अजय सिंह जसरोटिया भारतीय सेना में शामिल हुए.

सेना में शामिल होने के तीन साल बाद ही वह दिन आ गया, जिसका हर सैनिक को बेसब्री से इंतजार रहता है. ऑपरेशन विजय में उन्हें मातृ भूमि की सेवा करने का मौका मिला और उन्होंने देश की एकता और अखंडता के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया.

हम अमर बलिदानी कारगिल नायकों का पुण्य स्मरण करते हुए उन्हें शत-शत नमन करते हैं.

You may also like...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

1 × three =