जयमंगल पांडे और नादिर अली का बलिदान (4 अक्तूबर/बलिदान-दिवस)
1857 के स्वाधीनता संग्राम की ज्योति को अपने बलिदान से जलाने वाले मंगल पाण्डे को तो सब जानते हैं; पर उनके नाम से काफी मिलते-जुलते बिहार निवासी जयमंगल पाण्डे का नाम कम ही प्रचलित है।
बैरकपुर छावनी में हुए विद्रोह के बाद देश की अन्य छावनियों में भी क्रान्ति-ज्वाल सुलगने लगी। बिहार में सैनिक क्रोध से जल रहे थे। 13 जुलाई को दानापुर छावनी में सैनिकों ने क्रान्ति का बिगुल बजाया, तो 30 जुलाई को रामगढ़ बटालियन की आठवीं नेटिव इन्फैण्ट्री के जवानों ने हथियार उठा लिये। भारत माता को दासता की जंजीरों से मुक्त करने की चाहत हर जवान के दिल में घर कर चुकी थी। बस, सब अवसर की तलाश में थे।
सूबेदार जयमंगल पाण्डे उन दिनों रामगढ़ छावनी में तैनात थे। उन्होंने अपने साथी नादिर अली को तैयार किया और फिर वे दोनों 150 सैनिकों को साथ लेकर राँची की ओर कूच कर गये। वयोवृद्ध बाबू कुँवरसिंह जगदीशपुर में अंग्रेजों से लोहा ले रहे थे। इस अवस्था में भी उनका जीवट देखकर सब क्रान्तिकारियों ने उन्हें अपना नेता मान लिया था। जयमंगल पाण्डे और नादिर अली भी उनके दर्शन को व्याकुल थे। 11 सितम्बर, 1857 को ये दोनों अपने जवानों के साथ जगदीशपुर की ओर चल दिये।
वे कुडू, चन्दवा, बालूमारथ होते हुए चतरा पहुँचे। उस समय चतरा का डिप्टी कमिश्नर सिम्पसन था। उसे यह समाचार मिल गया था कि ये दोनों अपने क्रान्तिकारी सैनिकों के साथ फरार हो चुके हैं। उन दिनों अंग्रेज अधिकारी बाबू कुँवरसिंह से बहुत परेशान थे। उन्हें लगा कि इन दोनों को यदि अभी न रोका गया, तो आगे चलकर ये भी सिरदर्द बन जाएंगे। अतः उसने मेजर इंगलिश के नेतृत्व में सैनिकों का एक दल भेजा। उसमें 53 वें पैदल दस्ते के 150 सैनिकों के साथ सिख दस्ते ओर 170 वें बंगाल दस्ते के सैनिक भी थे। इतना ही नहीं,तो उनके पास आधुनिक शस्त्रों का बड़ा जखीरा भी था।
इधर वीर जयमंगल पाण्डे और नादिर अली को भी सूचना मिल गयी कि मेजर इंगलिश अपने भारी दल के साथ उनका पीछा कर रहा है। अतः उन्होंने चतरा में जेल के पश्चिमी छोर पर मोर्चा लगा लिया। वह दो अक्तूबर, 1857 का दिन था। थोड़ी देर में ही अंग्रेज सेना आ पहुँची।
जयमंगल पाण्डे के निर्देश पर सब सैनिक मर मिटने का संकल्प लेकर टूट पड़े; पर इधर संख्या और अस्त्र शस्त्र दोनों ही कम थे,जबकि दूसरी ओर ये पर्याप्त मात्रा में थे। फिर भी दिन भर चले संघर्ष में 58 अंग्रेज सैनिक मारे गये। उन्हें कैथोलिक आश्रम के कुँए में हथियारों सहित फेंक दिया गया। बाद में शासन ने इस कुएँ को ही कब्रगाह बना दिया।
इधर क्रान्तिवीरों की भी काफी क्षति हुई। अधिकांश सैनिकों ने वीरगति पायी। तीन अक्तूबर को जयमंगल पाण्डे और नादिर अली पकड़े गये। अंग्रेज अधिकारी जनता में आतंक फैलाना चाहते थे। इसलिए अगले दिन चार अक्तूबर को पन्सीहारी तालाब के पास एक आम के पेड़ पर दोनों को खुलेआम फाँसी दे दी गयी। बाद में इस तालाब को फाँसी तालाब, मंगल तालाब, हरजीवन तालाब आदि अनेक नामों से पुकारा जाने लगा। स्वतन्त्रता के बाद वहाँ एक स्मारक बनाया गया। उस पर लिखा है –
*जयमंगल पाण्डेय नादिर अली दोनों सूबेदार रे।।*
*दोनों मिलकर फाँसी चढ़े हरजीवन तालाब रे।।*