पुलिस अधिकारी टेगार्ट ने अपनी रणनीति से बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन को काफी नुकसान पहुँचाया. प्रमुख क्रान्तिकारी या तो फाँसी पर चढ़ा दिये गए थे या जेलों में सड़ रहे थे. उनमें से कई को तो कालेपानी भेज दिया गया था. ऐसे समय में बंगाल की वीरभूमि पर गोपीमोहन साहा नामक एक क्रान्तिवीर का जन्म हुआ, जिसने टेगार्ट से बदला लेने का प्रयास किया. यद्यपि दुर्भाग्यवश उसका यह प्रयास सफल नहीं हो पाया.
टेगार्ट को यमलोक भेजने का निश्चय करते ही गोपीमोहन ने निशाना लगाने का अभ्यास प्रारम्भ कर दिया. वह चाहता था कि उसकी एक गोली में ही उसका काम तमाम हो जाए. उसने टेगार्ट को कई बार देखा, जिससे मारते समय किसी प्रकार का भ्रम न हो. अब वह मौके की तलाश में रहने लगा.
दो जनवरी, 1924 को प्रातः सात बजे का समय था. सर्दी के कारण कोलकाता में भीषण कोहरा था. दूर से किसी को पहचानना कठिन था. ऐसे में भी गोपीमोहन अपनी धुन में टेगार्ट की तलाश में घूम रहा था. चैरंगी रोड और पार्क स्ट्रीट चौराहे के पास उसने बिल्कुल टेगार्ट जैसा एक आदमी देखा. उसे लगा कि इतने समय से वह जिस संकल्प को मन में संजोए है, उसके पूरा होने का समय आ गया है. उसने आव देखा न ताव, उस आदमी पर गोली चला दी; पर यह गोली चूक गई. वह व्यक्ति मुड़कर गोपीमोहन की ओर झपटा. यह देखकर गोपी ने दूसरी गोली चलायी. यह गोली उस आदमी के सिर पर लगी.
वह वहीं धराशायी हो गया. गोपी ने सावधानी वश तीन गोली और चलाई तथा वहां से भाग निकला. उसने एक टैक्सी को हाथ दिया; पर टैक्सी वाला रुका नहीं. यह देखकर गोपीमोहन ने उस पर भी गोली चला दी. गोलियों की आवाज और एक अंग्रेज को सड़क पर मरा देखकर भीड़ ने गोपीमोहन का पीछा करना शुरू कर दिया. गोपी ने फिर गोलियाँ चलाई, इससे तीन लोग घायल हो गए; लेकिन अन्ततः वह पकड़ा गया.
पकड़े जाने पर उसे पता लगा कि उसने जिस अंग्रेज को मारा है, वह टेगार्ट नहीं अपितु उसकी शक्ल से मिलता हुआ एक व्यापारिक कम्पनी का प्रतिनिधि है. इससे गोपी को बहुत दुःख हुआ कि उसके हाथ से एक निरपराध की हत्या हो गयी; पर अब कुछ नहीं हो सकता था.
न्यायालय में अपना बयान देते समय उसने टेगार्ट को व्यंग्य से कहा कि आप स्वयं को सुरक्षित मान रहे हैं; पर यह न भूलें कि जो काम मैं नहीं कर सका, उसे मेरा कोई भाई शीघ्र ही पूरा करेगा. उस पर अनेक आपराधिक धाराएं थोपीं गयीं. इस पर न्यायाधीश से कहा कि कंजूसी क्यों करते हैं, दो-चार धाराएं और लगा दीजिये.
16 फरवरी, 1924 को उसे फाँसी की सजा सुनाई गई. सजा सुनकर उसने गर्व से कहा, ‘‘मेरी कामना है कि मेरे रक्त की प्रत्येक बूँद भारत के हर घर में आजादी के बीज बोए. जब तक जलियाँवाला बाग और चाँदपुर जैसे काण्ड होंगे, तब तक हमारा संघर्ष भी चलता रहेगा. एक दिन ब्रिटिश शासन को अपने किये का फल अवश्य मिलेगा.’’
एक मार्च, 1924 भारत माँ के अमर सपूत गोपीमोहन साहा ने फाँसी के फन्दे को चूम लिया. मृत्यु का कोई भय न होने के कारण उस समय तक उसका वजन दो किलो बढ़ चुका था. फाँसी के बाद उसके शव को लेने के लिए गोपी के भाई के साथ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस भी जेल गए थे.