वनवासियों के सच्चे मित्र श्री भोगीलाल पण्ड्या – 13 नवम्बर/जन्म-दिवस
राजस्थान के वनवासी क्षेत्र में भोगीलाल पंड्या का नाम जन-जन के लिए एक सच्चे मित्र की भाँति सुपरिचित है। उनका जन्म 13 नवम्बर, 1904 को ग्राम सीमलवाड़ा में श्री पीताम्बर पंड्या के घर में माँ नाथीबाई की कोख से हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गाँव में ही हुई। इसके बाद डूँगरपुर और फिर अजमेर से से उच्च शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने राजकीय हाईस्कूल, डूँगरपुर में अध्यापन को अपनी जीविका का आधार बनाया। 1920 में मणिबेन से विवाह कर उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया।
भोगीलाल जी की रुचि छात्र जीवन से ही सामाजिक कार्यों में थी। गृहस्थ जीवन अपनाने के बाद भी उनकी सक्रियता इस दिशा में कम नहीं हुई। उनकी पत्नी ने भी हर कदम पर उनका साथ दिया। 1935 में जब गांधी जी ने देश में हरिजन उद्धार का आन्दोलन छेड़ा, तो उसकी आग राजस्थान में भी पहुँची। भोगीलाल जी इस आन्दोलन में कूद पड़े। उनका समर्पण देखकर जब डूँगरपुर में ‘हरिजन सेवक संघ’ की स्थापना की गयी, तो भोगीलाल जी को उसका संस्थापक महामन्त्री बनाया गया।
समाज सेवा के लिए एक समुचित राष्ट्रीय मंच मिल जाने से भोगीलाल जी का अधिकांश समय अब इसी में लगने लगा। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि सब ओर फैलने लगी। अतः उनका कार्यक्षेत्र भी क्रमशः बढ़ने लगा। हरिजन बन्धुओं के साथ ही जनजातीय समाज में भी उनकी व्यापक पहुँच हो गयी। वनवासी लोग उन्हें अपना सच्चा मित्र मानते थे। उनके सेवा और समर्पण भाव को देखकर लोग उन्हें देवता की तरह सम्मान देने लगे।
भोगीलाल जी का विचार था कि किसी भी व्यक्ति और समाज की स्थायी उन्नति का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम शिक्षा है। इसलिए उन्होंने जनजातीय बहुल वागड़ अंचल में शिक्षा का व्यापक प्रचार-प्रसार किया।
इससे सब ओर उनकी प्रसिद्धि ‘वागड़ के गांधी’ के रूप में हो गयी। गांधी जी द्वारा स्थापित भारतीय आदिम जाति सेवक संघ, राजस्थान हरिजन सेवक संघ आदि अनेक संस्थाओं में उन्होंने मेरुदण्ड बनकर काम किया।
भोगीलाल जी की कार्यशैली की विशेषता यह थी कि काम करते हुए उन्होंने सेवाव्रतियों की विशाल टोली भी तैयार की। इससे सेवा के नये कामों के लिए कभी लोगों की कमी नहीं पड़ी। 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के समय राजकीय सेवा से त्यागपत्र देकर वे पूरी तरह इसमें कूद पड़े। वागड़ अंचल में उनका विस्तृत परिचय और अत्यधिक सम्मान था। उन्होंने उस क्षेत्र में सघन प्रवास कर स्वतन्त्रता की अग्नि को दूर-दूर तक फैलाया।
1942 से उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः राजनीतिक हो गया; फिर भी प्राथमिकता वे वनवासी कल्याण के काम को ही देते थे। 1944 में उन्होंने प्रजामंडल की स्थापना की। रियासतों के विलीनीकरण के दौर में जब पूर्व राजस्थान का गठन हुआ, तो भोगीलाल जी उसके पहले मन्त्री बनाये गये। स्वतन्त्रता के बाद भी राज्य शासन में वे अनेक बार मन्त्री रहे। 1969 में उन्हें राजस्थान खादी ग्रामोद्योग बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया।
समाज सेवा के प्रति उनकी लगन के कारण 1976 में शासन ने उन्हें ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया। 31 मार्च, 1981 को वनवासियों का यह सच्चा मित्र अनन्त की यात्रा पर चला गया।