प्रो. के. बी. शर्मा
‘‘ज्ञान‘‘ से बढ़कर पवित्र कुछ भी नहीं है। मनुष्य का टिकाव है तो ज्ञान के कारण ही है। भारत देश यदि विश्वगुरू की उपाधि से अलंकृत है तो अपनी उत्कृष्ट ज्ञान परम्परा के कारण ही। ज्ञान और अज्ञान दोनों की रचना परमात्मा ने की है जब अज्ञान हटेगा तभी ज्ञान का प्रादुर्भाव होगा। हमारे देश में ऋषियों ने, तपस्वियों ने तथा संतों ने बहुत गहन आराधना करके ज्ञान तत्व को प्राप्त कर चहुँ ओर उसका उजास फैलाया है। परमात्मा ने सृष्टि की रचना करके सबके कर्त्तव्य निर्धारित किये है और सदैव कर्म की प्रधानता ही हमारा लक्ष्य रहा है। सत्कर्म में लगे रहना और असत्कर्म से दूर रहना। परोपकार पूर्ण कार्य करना, सदैव परहित चिन्तन को सर्वोपरि रखना। यही मनुष्य का परम कर्त्तव्य है।
अब प्रश्न उठता है कि भगवान ने सृष्टि की रचना की और सत् तथा असत् दोनों कर्मो की भी रचना की, पर कैसे बोध हो कि यह श्रेयस्कर कार्य है और यह श्रेयस्कर नहीं है। संसार के इसी ऊहापोहमय बंधनों से पार करवाने वाला, अलौकिक तेज सम्पन्न व सदैव आत्मिक सम्बल देने वाला है ‘‘गुरू‘‘।
‘‘गुरू‘‘ वह है जो अज्ञान को दूर कर ज्ञान का प्रकाश फैलाता है। ‘‘अज्ञान‘‘ भी विविध प्रकार का होता है, कर्त्तव्यविमूढ़ता, पथ भ्रष्टता, लोभ लालच, स्वार्थ आदि अनेक रूपों में अज्ञान सिमटा है। इन सभी पाशों से निकालकर ज्ञान के तेजमय प्रकाश से आलोकित करने वाला गुरू है।
भारतीय संस्कृति में ‘‘गुरू‘‘ का स्थान बहुत ही ऊँचा है। यहाँ तक कि भगवान से भी बढ़कर ‘‘गुरू‘‘ का स्थान है। हमारे मन मंदिर में बसने वाले ‘‘राम‘‘ ‘‘कृष्ण‘‘ तो सतत ‘‘गुरू‘‘ के आराधन से ही महान बने है।
‘‘गुरू‘‘ को आज के दौर में अध्यापक, प्रवक्ता, व्याख्याता, प्रोफेसर आदि शब्दों से अभिहित किया जाता है। प्राचीन परम्परा में ‘‘गुरूकुल-शिक्षण‘‘ के केन्द्र होते थे और बालक वही रहकर अर्थात् गुरू के समीप पूर्णतः रहकर ज्ञानार्जन करता था। ज्ञानार्जन भी नियमों में तथा अनुशासनमय वातावरण को सृजित रख किया जाता था।
काल की गति विचित्र है, समय चक्र निरन्तर परिवर्तन की ओर बढ़ता है और होना भी है क्योंकि युग-धर्म बलवान है। आज गुरू-शिष्य सम्बन्ध बिल्कुल पृथक् हो गया। विज्ञान के दौर में ‘‘ज्ञान‘‘ की स्वस्थ परम्परा विलुप्त हो गयी है। ‘‘तकनीक पद्धति‘‘ से सभी आज प्रभावित है, परन्तु आज भी हमारे देश में ‘‘गुरू‘‘ का महत्व व सम्मान है।
आषाढ़ मास की पूर्णिमा को ‘‘गुरू पूर्णिमा‘‘ के रूप में सनातन काल से मनाया जाता है। यह दिन बहुत विशेष तथा पवित्र होता है।
भावी पीढी के बोध के लिए ऐसे पर्वो का बहुत प्रचार व प्रसार होना ही चाहिए जिससे वे इस ‘‘ज्ञान परम्परा‘‘ के महत्व को हृदय के अन्तः स्थल की गहराइयों से समझें।
‘‘गुरू-पूर्णिमा‘‘ का उत्सव पूरे देश में आनंद व उल्लास से मनाया जाता है। विदेश में रहने वाले भी इस अवसर पर नियमित रूप से अपने देश में आते है और गुरू के स्थान पर जाकर इस पर्व को विधि-विधान से मनाते है।
यह जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है कि पूर्णिमा तो हर माह आती है तो आषाढ मास की पूर्णिमा को ही ‘‘गुरू‘‘ पूर्णिमा के रूप में हम क्यों मनाते है। इस दिन ‘‘गुरू पूर्णिमा‘‘ मनाने का विशिष्ट कारण यह भी है भारत वर्ष में अनेक विद्वान गुरू हुये है किन्तु महर्षि वेद व्यास जी प्रथम ऐसे गुरू थे जिन्होंने हमारी संस्कृति के गौरव चारों वेदों की व्याख्या की थी। आषाढ़ मास की पूर्णिमा को उनका जन्म हुआ इसीलिए इस दिन को ‘‘गुरू पूर्णिमा‘‘ के रूप में मनाया जाता है।
‘‘गुरू पूर्णिमा‘‘ उत्सव विधि सम्मत मनाया जाता है। ‘‘गुरू‘‘ का पूजन कर पूरी तरह इस दिन उनसे आशीर्वाद लिया जाता है तथा मन से सदैव अच्छे कायों की करने की दीक्षा ली जाती है।
‘‘दीक्षा‘‘ का बहुत महत्व है दीक्षा से अभिप्राय है अन्दर बाहर दोनों से दक्षता प्राप्त करना। गुरू ही दीक्षा देने का अधिकारी होता है। हम बहुत अच्छे से जानते है कि बहुत से लोग व्यभिचारी हो जाते है और भटक जाते है और कुमार्गी हो जाते है ‘‘गुरू‘‘ ही ऐसा उपदेशक है जो उसे अपने असीम ज्ञान की गंगा में डुबोकर उभार देता है।
गुरू की महिमा अपरम्पार है। गुरू ज्ञान बिना सब सूना है। ‘‘ज्ञान‘‘ तो पुस्तकों में बहुत भरा है परन्तु उसे सरल व सहज भाषा में समझाने वाला ‘‘गुरू‘‘ ही है उसी के माध्यम से ‘‘ज्ञान‘‘ की प्राप्ति वास्तविक प्राप्ति है।
अतः ‘‘गुरू‘‘ का महत्व सर्वोपरि है और ‘‘गुरू-पूर्णिमा‘‘ गुरू के सम्मान में मनायी जाती है। इस ‘‘गुरू पूर्णिमा‘‘ का गुरूत्व संस्कृति के कण-कण में रचा-बसा है।
(लेखक एस.एस.जैन सुबोध स्नातकोत्तर स्वायत्तशासी महाविद्यालय, जयपुर में प्राचार्य हैं)