भारत के एक प्रमुख विचारक पं. दीनदयाल उपाध्याय भारतीय संस्कृति एवं वैदिक ज्ञान से अनुप्राणित थे। उन्होंने 1965 में एकात्ममानववाद की व्याख्या के बहुत पूर्व 1958 में अपनी पुस्तक ‘भारतीय अर्थनीति-विकास की एक दिशा’ में ही आचार्य चाणक्य के सूत्रों ‘सुखस्य मूलं धर्म:’ एवं ‘धर्मस्य मूलमर्थ:’ और उनके द्वारा बताई गर्ईं चार विद्या – ‘आन्वीक्षिका, त्रयी, वार्ता, दण्डनीति’ का उल्लेख कर अनायास ही भारत के सर्वांगीण विकास हेतु वैदिक संस्कृति प्रेरित विचारधारा का सक्षम विकल्प प्रस्तुत कर दिया। जगद्गुरु शंकराचार्य के ‘अद्वैतवादी दर्शन’ के चार महामंत्र-‘अहम् ब्रह्मोस्मि’ (मैं ही ब्रह्म हूं) ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ (प्रगट ज्ञान ही ब्रह्म है) ‘ऊँ तत्वमसि’ (वह ब्रह्मतत्व स्वयं तुम्हीं हो), ‘सर्व खल्विदम् ब्रह्म’ (ब्रह्मतत्व सर्वत्र व्ययाप्त है),-आधारित एकात्ममानव दर्शन यही सिद्ध करता है कि सभी प्राणियों में एक ही ब्रह्म/ईश/दैवीय शक्ति है। वे एक-दूसरे से पृथक ‘द्वैत’ हो ही नहीं सकते। प्रत्येक मानव का अपने, अपने परिवार, समाज, राष्ट्र और प्रकृति/ब्रह्मांड के प्रति एकात्मतापूर्ण तादात्म्य ही एकात्ममानवता का स्वरूप है।
पं. दीनदयाल जी ने भी, भारतीय मानस में, धर्म, जाति, भाषा, आचरण, सामाजिक परंपराओं की विभिन्नता होते हुए भी, राष्ट्रीय चेतना के संचार हेतु, मानव के ‘चित्त’ की राष्ट्रीय ‘चित्ति’ से एकात्मता एवं एक राष्ट्रीय संस्कृति आधारित, अखंड, सक्षम एवं संपन्न भारत संगठित करने का आवाह्न किया था। उनके आधारभूत लक्ष्यों में ‘सक्षम राष्ट्र’ का लक्ष्य सर्वोपरि है। सामरिक दृष्टि से कमजोर राष्ट्र, कभी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता। अत: सर्वप्रथम रक्षात्मक सहित आक्रामक सामरिक सामर्थ्य की अभिवृद्धि आवश्यक है। अन्य राष्ट्रों पर आक्रमण हेतु नहीं, बल्कि इसलिए कि कोई भी देश, हम पर आक्रमण का साहस भी न कर सके। अपनी सामर्थ्य का निर्माण हमें स्वयं करना होगा। सैन्य सहायता/सामग्री हेतु, किसी शक्तिशाली राष्ट्र पर निर्भरता, संकटकाल में हमारे लिए आत्मघाती सिद्ध हो सकती हैं। उस समय वह राष्ट्र हमारा, कूटनीतिक एवं आर्थिक शोषण करने को उद्यत हो सकता है।
उपाध्याय जी का एकात्ममानवदर्शन चाणक्य के ‘सुखस्य मूलं धर्म:’ सूत्र की आधुनिक जीवन संदर्भ में, वैदिक संस्कृति प्रेरित पुनर्व्याख्या है। हमारी भारतीय संस्कृति में पुरुष जीवन का अर्थ – ‘पुरुषार्थ चतुष्टय’ के रूप में वर्णित है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष। महर्षि वेदव्यास के-‘धर्मादर्थकामश्चय’-अनुसार, धर्म, अर्थ एवं काम की सिद्घि के साथ कामनाओं से मुक्ति ही मोक्ष है। एक कर्मयागी की भांति सक्रिय रहकर, सकारात्मक लक्ष्योंं के संग जीवनयापन कर न कि जीवन को नकारकर। वास्तविक सुख तभी मिलता है जब व्यक्ति धर्माचरण सहित अर्थाचरण करते हुए अपने सभी उत्तरदायित्वों को पूर्ण करे।
शतायु की धारणा के साथ, हमारे जीवन की प्रथम चतुर्थांश आयु- ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म समान आचार्यों के आश्रम से ज्ञान, शिक्षा, कौशल तथा आगे आने वाले उत्तरदायित्वों की पूर्ति की शिक्षा प्राप्त करना है। तदुपरांत आचार्यों द्वारा जांची-परखी योग्यता एवं प्राप्त कौशल अनुसार वर्ण, ब्राह्मण (शिक्षक), क्षत्रिय (रक्षक), वणिक (अर्थार्जन) अथवा कर्म कौशल (कर्मकार) वर्ण में दीक्षित होकर, गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना है। गृहस्थाश्रम सभी आश्रमों में श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि इसी आश्रम व्यवस्था (शतायु के दूसरे चतुर्थांश) में पूर्ण किए गए उत्तरदायित्वों के परिणामस्वरूप, समाज का संचालन होता है। इसी आश्रम में अपने दीक्षित वर्णानुसार कार्यरत हो, अर्जित अर्थ से उत्तरदायित्वों का पालन करते हुए, हमें देवऋण, गुरुऋण, पितृऋण एवं राज्य व समाजऋण का प्रतिदान करना होता है।
आयु के तृृतीय चतुर्थांश में वानप्रस्थाश्रम की व्यवस्थान्तर्गत, अपनी सम्पत्ति एवं अनुभवों सहित अपने दायित्वों को, क्रमश: अपने उत्तराधिकारियों को सौंपने एवं-‘इदं राष्ट्राय, इदं न-मम्’-यथायोग्तानुसार समाज/राष्ट्र को हस्तांतरित करने की व्यवस्था दी गई है। इस प्रकार समस्त उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर, दैहिक संतुष्टिपूर्ण जीवनोपरांत, शतायु के अंतिम चतुर्थांश में, शेष शांतिपूर्ण जीवन-यापन हेतु, संन्यास आश्रम में प्रविष्ट हो दैविक सुख उपलब्धि की व्यवस्था है। भारतीय संस्कृति में दैहिक एवं दैविक/शारीरिक एवं आत्मिक, दोनों सुखों की प्राप्त संगत को ही मोक्ष/परम सुख माना गया है। दीनदयाल जी ने भी लिखा है कि शरीर, बुद्धि, मन और आत्मा के समुच्चय से प्राप्त सुख ही वास्तविक सुख है। अत: देशकाल परिस्थितियों के संदर्भ में, पुरुषार्थ चतुष्टय, आश्रम एवं वर्ण व्यवस्थानुकूल धर्म पालन करते हुए, प्रत्येक मानव को एकात्ममानव के रूप में स्वयं के प्रति परिवार, राष्ट्र के प्रति अनेक उत्तरदायित्वों की पूर्ति करते हुए, समस्त मानव समाज एवं ब्रह्मांड के साथ एकात्मता स्थापित करनी होती है। यही उनका एकात्म मानवतादर्शन है। चाणक्य का दूसरा सूत्र है, ‘धर्मस्य मूलमर्थ:’। अर्थात् धर्म का मूल अर्थ है। आचार्य चाणक्य ने ‘अर्थशास्त्र’ के प्रारंभ में उल्लेख किया है कि समग्र मानवता कल्याण हेतु प्रस्तुत उनका यह ग्रंथ, पूर्व आचार्यों द्वारा प्रदत्त अर्थशास्त्र ज्ञान पर आधारित है-
पृथिव्या लाभ पालने च यावन्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्यें:।
प्रस्तावितानि प्रायशस्तानि संहृत्यैकिमिदमर्थशास्त्रं कृतम्॥
(कौ.अर्थ.-01/01)
अर्थात् पृथ्वी को प्राप्त और प्राप्त के पालन हेतु, जितने अर्थशास्त्र प्राचीन आचार्यों ने लिखे हैं, उन सबको संग्रहित करके यह ‘अर्थशास्त्र’ बनाया गया है। यह केवल सम्पत्तिशास्त्र नहंीं अपितु राज्यशासन व राष्ट्रधर्म शास्त्र भी है। सुसंगठित, सक्षम, संपन्न मगध साम्राज्य चाणक्य की इन्हीं शिक्षाओं के पालन की वास्तविक परिणति था। पं. दीनदयाल जी का अर्थदर्शन भी, इसी एकात्म मानवदर्शन का अंग है एवं वेद-श्रुति, उपनिषद, स्मृति, नीतिसार ग्रंथों, गीता कर्मयोग एवं वाल्मीकि-रामायण के राजयोग की शिक्षा का सार है। धर्म की पूर्ति ‘अर्थ’ के बिना असंभव है। पं. जी ने इसकी व्याख्या ‘अर्थायाम’ के रूप में प्रस्तुत की। अर्थाभाव अपराध-वृत्ति प्रेरित करता है। अर्थाभाव से पीड़ित नागरिकों वाला राष्ट्र कभी संपन्न और सक्षम नहीं बन सकता। अर्थाधिक्य व्यष्टि रूप में अनावश्यक उपभोग, विलासिता, शोषण, दमन तथा समष्टि रूप में राष्ट्रीय/ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व शांति एवं मानवता के लिए घातक है। पूर्व में दो विश्वयुद्ध एवं वर्तमान में वियतनाम, इराक, कोरिया, दक्षिण चीन सागर जैसी तनावपूर्ण स्थितियांं अर्थ के प्रभाव के उदाहरण हैं। इसी कारण राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में, राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। चाणक्य का तृतीय सूत्र है, ‘अर्थस्यमूलम् राज्य:’ अर्थात् अर्थ का मूल राज्य है। दीनदयाल जी ने विज्ञान/तकनीक की अपने राष्ट्रानुकूल स्वीकृति एवं प्रयोग अन्त्योदय, विकेन्द्रित लोक प्रशासन एवं आर्थिक विकास की वित्तीय अनुशासन नीति का समर्थन किया है। मनुस्मृति में भी कहा गया है,
अलब्धमिच्छेत दण्डेन, लब्धंरक्षेतवेक्षया।
रक्षितं वर्धयेदंवृद्घ्रयां, वृद्घंपात्रेषुनिक्षिपेत॥ मनु.-5/109
राज्य उन लोगों को दण्डित करे जो अनुचित (चोरी करवंचन, छल आदि) अर्थाचरण से अर्थ प्राप्त करते हैं। मान्य प्रयासों से प्राप्त अर्थ की रक्षा, रक्षित की वृद्धि एवं वृद्धित अर्थ का, उन लोगों का विशेष ध्यान रखते हुए जिन्हें सर्वाधिक आवश्यकता है, राष्ट्र विकास हेतु उपयुक्त कार्यों में विनियोजन करे। स्वतंत्रतोपरांत, विभाजन के आत्मघाती निर्णय से उत्तर पश्चिम में कश्मीर एवं पाक अधिकृत कश्मीर को लेकर, उत्पन्न तनाव का निकट भविष्य में कोई असैनिक समाधान नजर नहीं आ रहा है। सुरक्षा कवच-तिब्बत की आहुति के परिणामस्वरूप विस्तारवादी चीन से उत्तर-उ. पूर्व सीमा पर बढ़ती आशंकाएं, पश्चिमी सीमा पर पाक प्रायोजित आतंकवाद सत्तालोलुप आंतरिक दलदली सांप्रदायिकता, जाति, क्षेत्र, आरक्षण-अनारक्षण, कुटुम्ब-भाई-भतीजावाद, प्रशासनिक एवं आर्थिक भ्रष्टाचार राष्ट्र को अंदर एवं बाहर से कमजोर कर, अन्तरराष्ट्रीय बिरादरी पर हमारी कूटनीतिक पकड़ कमजोर कर रहे हैं। निरंतर वृद्धिशील राष्ट्रीय आय परंतु उतनी ही अधिक तेजी से वृद्धिशील निजी आय-असमानताएं भी चिंता का विषय हैं।
उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में यदि दीनदयाल जी के एकात्म मानवदर्शन, अर्थायाम, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, समीक्षात्मक लेखों और शिक्षा वक्तव्यों की समीक्षा की जाए तो, उन्हें आधुनिक भारत का चाणक्य कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
-प्रो. श्रीराम अग्रवाल
(लेखक बुन्देलखंड विश्वविद्यालय के प्रतिकुलपति रहे हैं)
साभार – पाञ्चजन्य