बंटवारे के दौर की रातों को पाकिस्तान से आना वाला कोई भी हिन्दू नहीं भूल सकता, हिन्दुओं के घरों को आग लगा दी जाती थी, बहन-बेटियों का अपहरण कर लिया जाता था. हत्याएं होती थीं.. मैं उस समय 8 वर्ष था. मेरे बड़े भाई एवं चाचा मुल्तान के पास स्थित डेरा इस्माइल खान में संघ की शाखा लगाया करते थे. पांच वर्ष का होने पर मैं भी शाखा में जाने लगा. मुझे याद है बंटवारे के समय जब ज्यादा माहौल खराब होने लगा तो हमारे चाचा जी स्वयंसेवकों के साथ छत पर पहरा दिया करते थे ताकि हिन्दू मोहल्ले में आततायी हमला न करने पाएं. क्योंकि हमारे मोहल्ले के पीछे मुस्लिम मोहल्ला था. दिनोंदिन आतंक बढ़ता ही जा रहा था. लोग पलायन करने पर मजबूर थे. कुछ लोगों ने अपना सब कुछ छोड़कर भारत की ओर रुख कर दिया था. यह सिलसिला लगातार जारी था. डेरा इस्माइल खान से मुल्तान तक का रास्ता नौका से पार करना था. जब हम सभी लोग अपने मोहल्ले से निकल रहे थे तो सैनिकों ने बड़ी मदद की. उनके डर के कारण स्थानीय मुसलमानों ने परेशान नहीं किया. लेकिन जो लोग हमसे पहले निकले थे, उन्हें मुसलमानों ने मार-काट दिया, क्योंकि तब तक सेना नहीं आई थी. हम लोग नौका के जरिए मुल्तान पहुंचे. यहां से ट्रेन के रास्ते अलवर पहुंचे. फिर वहां से हम दिल्ली आये. दिल्ली में चांदनी चौक में ठहराया गया. यहां विपरीत परिस्थितियों में रहना हुआ. यहां संघ के स्वयंसेवक पाकिस्तान से आने वाले परिवारों की हर संभव मदद कर रहे थे. उनके कारण हमारी भी बहुत जल्दी रहने की व्यवस्था हो गई. उसके कुछ ही दिन बाद हमारे परिवार को दिल्ली विश्वविद्यालय के पास किंग्जवे कैंप में रहने की जगह मिल गयी. उस समय मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था. चूंकि आर्थिक स्थिति खराब ही थी. कमाने वाला कोई न था. पैसे कमाने के लिए चांदनी चौक में कंघी बेचना शुरू किया. कुछ समय बाद स्वयंसेवकों के संपर्क सहयोग से मेरे चाचा को दिल्ली में बिजली विभाग में नौकरी मिल गई. लेकिन फिर संघ पर प्रतिबंध लग गया. संघ से जुड़े लोगों को गिरफ्तार किया जाने लगा. खतरा ये था कि अगर चाचा जी पकड़े गए तो नौकरी चली जाएगी और परिवार फिर सड़क पर आ जाएगा. इसलिए वे साथ काम करने वाले एक दोस्त के घर रहने लगे और वहीं से नौकरी करने जाया करते थे. समय बीता और मेरा परिवार भी किंग्जवे कैंप में रहने लगा. लेकिन संघ से सदैव जुड़ाव बना रहा और शाखा जाना कभी नहीं छूटा. शिक्षा-दीक्षा दिल्ली में हुई. मुझे भी बिजली विभाग में नौकरी मिल गई और 1998 में सेवानिवृत्त हुआ. लेकिन जब बंटवारे के दिनों को सोचता हूं और उसमें संघ के सेवाभावी स्वयंसेवकों के योगदान को देखता हूं तो पाता हूं कि आज मैं ही नहीं हजारों हिन्दू परिवार ऐसे हैं, जिन्हें स्वयंसेवकों ने न केवल संबल प्रदान किया, बल्कि हर संभव मदद की. चाहे वह पाकिस्तान में रह रहे स्वयंसेवकों की बात हो या फिर भारत आने पर स्थान-स्थान पर शिविर लगाकर सहायता करने की, उनका योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता.
साभार – पाञ्चजन्य