बात उन दिनों की है, जब मेरे बड़े भाईसाहब सेना मुख्यालय से जुड़े एक सरकारी दफ्तर में काम करते थे. कुछ दिन बाद उनका स्थानांतरण लाहौर हो गया. उस समय मैं मैट्रिक पास कर चुका था. तो भाईसाहब ने कहा कि गांव से लाहौर चले आओ तो यहां नौकरी मिल जाएगी. मुझे याद है कि मैं 8 जुलाई,1946 को लाहौर पहुंच गया. भाई की मदद से दो-तीन दिन बाद ही नौकरी मिल गयी. कुछ दिन कार्य करने के बाद 01 अक्तूबर,1946 को मुझे एक विदेशी कंपनी में बाबू की नौकरी मिल गई. मैंने कंपनी के पास में ही एक किराए का कमरा लिया. इसी के पास संघ की शाखा लगती थी. उस वक्त मुझे यह नहीं पता था कि शाखा होती क्या है. प्रतिदिन हम शाखा में विभिन्न खेल खेलते और भारत की जयजयकार करते थे. यह क्रम एक वर्ष तक चलता रहा. लेकिन इसी बीच बंटवारे को लेकर लाहौर में हालात खराब होने लगे. मुसलमानों ने उनके साथ मार-काट शुरू कर दी. हिन्दुओं के घरों को तहस-नहस किया जाने लगा. यह सब देख हम 10-12 स्वयंसेवक एकत्र होकर निकलते थे और रणनीति बनाते थे कि अगर हम लोगों पर हमला होता है तो उससे कैसे निपटेंगे. एक दिन ऐसा आया जब लाहौर में आग ही आग दिखाई दे रही थी. इसे देख एक रात हम लोग खालसा कॉलेज गए, जहां सेना के जवान पहले से ही रुके हुए थे. जब सुबह हुई तो हम लोगों ने जवानों से अमृतसर छोड़ने का निवेदन किया तो वह मुझे साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए. उन्होंने कहा कि ट्रक चलने के बाद बिल्कुल चुपचाप लेट जाना, खड़े मत रहना जब तक भारत की सीमा न आ जाए. इसी तरह हम लाहौर से अमृतसर पहुंचे. जो दो स्वयंसेवक मेरे साथ थे उनमें से एक जालंधर और दूसरा होशियारपुर का था. मैंने जवानों से निवेदन किया कि हम लोगों को जालंधर छोड़ दें. तो उन्होंने हमें जालंधर छोड़ दिया, जहां से हम स्वयंसेवक के घर चले गए. इस समय जो दृश्य देखा और सुना, उसके बारे में यही कह सकता हूं कि पंजाब के स्वयंसेवकों ने पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू समाज की जो मदद की, उसको शब्दों में नहीं बयां किया जा सकता. प्रत्येक हिन्दू के रहने, भोजन, वस्त्र आदि की व्यवस्था यहीं के स्वयंसेवक किया करते थे और यह सिलसिला बंटवारे के 5-6 महीने बाद तक जारी रहा. उस समय की याद करता हूं तो पाता हूं कि वह समय हिन्दू समाज के लिए बड़ा कठिन था. पाकिस्तान से लेकर अमृतसर तक हिन्दुओं की स्थान-स्थान पर लाशें ही लाशें देखने को मिलती थीं. उस वक्त यही महसूस होता था कि किसी भी हिन्दू का जीवन सुरक्षित नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान के मुसलमानों ने तय कर लिया था कि एक भी हिन्दू को यहां नहीं रहने देंगे. इसलिए वह बर्बरता के साथ हिन्दू परिवारों का कत्ल कर रहे थे. खैर, स्थिति के कुछ सामान्य होने के बाद मैं 15 अगस्त, 1947 को जालंधर से अपने गांव गया. जिस कंपनी में काम करता था, उसने मुझे कानपुर में काम करने को कहा. मैं तैयार हो गया. मेरा शाखा जाना यहां भी जारी रहा. संघ की ओर से कुछ जिम्मेदारी भी मिल गई. फिर दिल्ली में स्थानांतरण हो गया और सेवानिवृत्ति के बाद यहीं बस गया. लेकिन इस पूरे कालखंड में संघ के स्वयंसेवकों ने जो अद्भुत कार्य किया वह पाकिस्तान से आया हुआ कोई भी हिन्दू नहीं भूल सकता. लेकिन आज भी बंटवारे की टीस मन को कचोटती रहती है.
साभार – पाञ्चजन्य