कोर्ट के कटघरे में हिन्दुओं की आस्था, हिन्दुओं के कटघरे में कोर्ट की आस्था
भारत के सम्पूर्ण राष्ट्र जीवन को झकझोर देने वाले, करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के साथ जुड़े हुए, गत 490 वर्षों से निरंतर संघर्ष करते चले आ रहे हिन्दू समाज की अस्मिता श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर के पुनर्निर्माण का ज्वलंत एवं भावुक विषय सर्वोच्च न्यायालय की प्राथमिकता में नहीं है. यह किसका दुर्भाग्य है? समस्त भारतीयों का? करोड़ों हिन्दुओं का? या फिर उन कानूनविदों का जिन्हें महत्वपूर्ण विषयों की प्राथमिकता का ही ज्ञान नहीं है?
श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का विषय कब तक कोर्ट कचहरी के गलियारों में लटकता रहेगा? पहले हाईकोर्ट में वर्षों तक यह मुद्दा चक्कर खाता रहा. जब हाई कोर्ट ने ऐतिहासिक तथ्यों पुरातात्विक सबूतों, सरकारी आदेश से हुए राडार परीक्षण एवं उत्खनन के बाद अपना निर्णय दे दिया तो सर्वोच्च न्यायालय में इसे वर्षों तक भटकाने का अर्थ क्या होता है? जन्मभूमि पर एक विदेशी हमलावर द्वारा जबरदस्ती बनाए गए बाबरी ढांचे के नीचे जब मंदिर के सबूत मिल गए हैं तो फिर यह मामला मात्र जमीन के मालिकाना हक का रह गया था. यही फैसला 8-9 वर्षों से नहीं हो रहा. हिन्दुओं के सब्र का इम्तिहान लिया जा रहा है क्या?
अच्छा होता कि मा. सर्वोच्च न्यायालय यह भी स्पष्ट कर देता कि श्रीराम जन्मभूमि का विषय उसकी प्राथमिकता में क्यों नहीं है? कांग्रेस के नेता वकील कपिल सिब्बल ने सर्वोच्च न्यायालय में मांग की थी कि इस मामले की सुनवाई 2019 के चुनाव के बाद शुरु करनी चाहिए. क्या सर्वोच्च न्यायालय ने कांग्रेसी नेता सिब्बल के सुझाए मार्ग पर चलने की नीति अपनाई है? अगर ऐसा ही है तो फिर सर्वोच्च न्यायालय की विश्वसनीयता को भी हिन्दुओं के कटघरे में आने से काई नहीं रोक सकेगा?
अतः अब तो दो ही रास्ते बचे हैं. केन्द्र की सरकार द्वारा अध्यादेश अथवा कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया जाए. विदेशी हमलावरों की आक्रमणकारी विरासत तथा परतन्त्रता के अपमानजनक चिन्हों को समाप्त करना ही चाहिए. इसी में राष्ट्र का गौरव है.
देश के सौभाग्य से स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात एक ऐसा समय आया था, जब विदेशी दासता के प्रतीकों को सरकारी योजना से समाप्त करने की परम्परा की शुरुआत हुई थी. देश से अंग्रेजों के जाने के पश्चात दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास और बंगलौर जैसे बड़े-बड़े शहरों में लगे अंग्रेज अधिकारियों के बुत हटा दिए गए थे. लार्ड इरविन, डलहौजी और कर्जन इत्यादि के बुत हटाकर उनके स्थान पर महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, शिवाजी, राणा प्रताप इत्यादि राष्ट्रीय विभूतियों की प्रतिमाएं लगाई गईं थीं. सारे देश में किसी भी ईसाई मतावलम्बी ने इसका विरोध नहीं किया.
जब महात्मा गांधी के आशीर्वाद और पंडित नेहरू के सहयोग से सरदार पटेल ने महमूद गजनवी द्वारा तोड़े गए सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया तो किसी भी मुस्लिम संगठन ने विरोध नहीं किया. मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने स्वयं अपने हाथों से मंदिर के शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा की. सोमनाथ मंदिर के निर्माण के समय अधिकांश मुसलमानों ने अपना सहयोग दिया था. आगरा के एक मुस्लिम विद्वान ने एक समाचार पत्र में लिखा था – ‘‘सोमनाथ भगवान के मंदिर का फिर से बनाया जाना हम मुसलमानों के लिए गौरव की बात है. हम उन्हीं हिन्दू पूर्वजों की संतानें हैं, जिन्होंने इस मंदिर की रक्षा के लिए बलिदान दिए थे. महमूद गजनवी ने हमारे ही पूर्वजों की लाशों पर इस मंदिर को बर्बाद किया था. आज हमारा सदियों पुराना स्वाभिमान फिर जागृत हो गया है’’.
इसी प्रकार सुदूर दक्षिण में कन्याकुमारी नामक स्थान पर सागर की उत्ताल लहरों के बीच एक चट्टान पर बने क्रास (ईसाई चिन्ह) को हटाकर जब वहां पर स्वामी विवेकानन्द की प्रतिमा लगाई गई तो किसी भी ईसाई अथवा राजनीतिक दल ने इसका विरोध नहीं किया. वहां पर लगे हुए क्रास का अर्थ था ‘सामने वाला देश ईसाईयों का गुलाम है’. सर्वविदित है कि इस स्थान पर मूर्ति स्थापना का पवित्र कार्य राष्ट्रपति वी.वी गिरी ने किया था. सम्भवतया उस समय वोट की ओछी राजनीति प्रारम्भ नहीं हुई थी. यह भी एक सच्चाई है कि सोमनाथ मंदिर के निर्माण और कन्याकुमारी में स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति स्थापना के समय तत्कालीन सरकार ने राष्ट्रभक्त संस्थाओं की इन योजनाओं का आदर करते हुए इनमें पूर्ण सहयोग दिया था.
आज के संदर्भ में यह सोचना भी महत्वपूर्ण है कि विश्वगुरु भारत के उच्चतम जीवन मूल्यों और गौरवशाली सांस्कृतिक धरोहर से कोसों दूर लार्ड मैकाले की शिक्षा से संस्कारित हमारे कई वर्तमान राजनीतिक नेता श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण जैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रखर स्वर को अनसुना करके राष्ट्र का कितना अहित कर रहे हैं, इसकी कल्पना तक से मन विचलित हो उठता है. ऐसे सब मंदिर विराधी तत्वों से हमारा निवेदन है कि राष्ट्र के स्वाभिमान से जुड़े हुए इस विषय पर गंभीरता से विचार करें क्यों कि राष्ट्रनायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तो सभी भारतवासियों के आद्यमहापुरुष और आराध्य हैं.
नरेंद्र सहगल