आध्यात्मिक इतिहास की एक दुलर्भ घटना
श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के बनते बिगड़ते स्वरूप और बलिदानों की अविरल श्रृंखला के बीच भी हिन्दुओं के द्वारा आरती वंदन और अखंड रामायण पाठ एक क्षण के लिए भी बंद नहीं हुआ. अयोध्या क्षेत्र में संत महात्मा तथा समस्त हिन्दू समाज अपने श्रीराम की प्रतिमा को जन्मभूमि मंदिर में ही देखने के लिए उतावले हो रहे थे. संयम और उदारता अपनी सीमाएं पार करने ही वाले थे कि एक अनोखी एवं संसार के आध्यात्मिक इतिहास की दुलर्भ घटना घटी.
यह घटना थी या कि भारतीय राष्ट्र जीवन के अविरल प्रवाह का ऐतिहासिक प्रसंग – यह तो भविष्य ही बताएगा. परन्तु इस सच्चाई से तो कोई भी आंखें नहीं मूंद सकता कि इस प्रसंग से हिन्दू जागरण का शंख एक बार फिर गूंज उठा. 23 दिसम्बर 1949 की मध्य रात्रि को रामजन्मभूमि में एक दिव्य प्रकाश हुआ और वहां पर तैनात एक मुस्लिम पहरेदार अबुल बक्श ने एक बाल प्रतिमा के दर्शन किए.
इस पहरेदार ने बाद में अयोध्या के जिलाधीश के.के. नायर के समक्ष स्वीकार किया था – ‘‘जब से मैं यहां तैनात किया गया हूं, बराबर अपनी ड्यूटी दे रहा हूं, आज तक कोई भी कार्यवाही हिन्दुओं की ओर से नहीं हुई जो गैर कानूनी कही जा सके. 22-23 दिसम्बर की रात को तकरीबन 2 बजे बाबरी मस्जिद में मुझे यकायक एक चांदनी सी नजर आई. इस बीच मुझे मालूम हुआ कि जैसे एक खुदाई रौशनी मस्जिद के भीतर हो रही है. धीरे-धीरे वह रौशनी तेज होती गई और उसमें एक बहुत ही खूबसूरत 4-5 साल के बच्चे की सूरत मुझे नजर आई. उसके सिर के बाल घुंघराले थे, बदन मोटा ताजा, खूब तंदुरुस्त था. मैंने ऐसा खूबसूरत बच्चा अपनी जिन्दगी में पहले कभी नहीं देखा था. उस को देखकर मैं बेहोशी की हालत में हो गया. कह नहीं सकता कि मेरी ऐसी हालत कब तक रही, जब होश में आया तो देखता हूं कि सदर दरवाजे का ताला टूटकर जमीन पर पड़ा हुआ है. मस्जिद के भीतर हिन्दुओं की बेशुमार भीड़ घुसी हुई है. एक सिंहासन पर कोई बुत रखा हुआ है. उसकी ‘भय प्रकट किरपाला दीन दयाला कौशल्या हितकारी’ गाते हुए लोग आरती उतार रहे हैं. इसके अलावा मैं कुछ नही जानता’’.
यह वक्तव्य किसी समाचार पत्र के संवाददाता की रिपोर्ट नहीं थी, यह किसी राजनीतिक नेता का कोई चुनावी भाषण भी नहीं था और न ही किसी फिल्म का डॉयलॉग. यह तो सरकार की ओर से तैनात एक मुसलमान सिपाही का सरकार के ही एक जिलाधीश के समक्ष दिया बयान था. इस साधारण कर्मचारी ने जो देखा वो बता दिया. इस घटना का समाचार चारों ओर फैलते ही हिन्दू समाज में प्रसन्नता की लहर दौड़ पड़ी. मुस्लिम समाज इससे आश्चर्यचकित हो गया और उत्तर प्रदेश की सरकार का तो मानो अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया. कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं को इसमें हिन्दुओं का एक षड्यंत्र नजर आने लगा. धर्मांधता के संस्कारों में पले कुछ अराष्ट्रीय तत्वों ने इस अवसर पर दंगे भड़काने का प्रयास भी किया, परन्तु हिन्दुओं के उत्साह और राम मंदिर की ओर उमड़ती भीड़ को देखते हुए वह कुछ नहीं कर सके.
हिन्दू दर्शनार्थियों का तांता लगता रहा और श्रीराम की स्तुति के कार्यक्रम चलते रहे. शांति का वातावरण बना रहा. अनेक मुसलमान भाई भी श्रीराम के दर्शनार्थ पहुंचे. परन्तु इस मजहब को भारत की राष्ट्रीय धारा से अलग-थलग करने के जिम्मेदार विदेशी मुल्ला-मौलवियों और शासकों के ही मानसपुत्र कुछ मुस्लिम नेताओं ने शोर मचा दिया. उन्हें हिन्दू और मुसलमान के एकरस होने का यह अवसर सुहाया नहीं. इनके शोर का वोट के लोभी सत्ताधारियों पर भी असर हो गया.
उत्तर प्रदेश की सरकार के तत्कालीन डिप्टी पुलिस इंस्पैक्टर जनरल सरदार सिंह ने स्वयं राममंदिर में जाकर सारी स्थिति को देखा. वातावरण राममय था. सब ओर शांति थी. वे और गृहसचिव भगवान सहाय अयोध्या के जिलाधीश को उचित कार्यवाही करने का आदेश देकर चले गए. केन्द्र सरकार के इशारे पर उत्तर प्रदेश की सरकार ने मंदिर पर ताला लगाने का आदेश जारी कर दिया. उस समय भारत के प्रधानमंत्री थे जवाहर लाल नेहरू, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे गोविन्द वल्लभ पंत और के.के. नैय्यर फैजाबाद के जिलाधिकारी थे.
कानून और व्यवस्था का बहाना बनाकर तत्कालीन सिटी मेजिस्ट्रेट ने ढांचे को अपराधिक दंड संहिता की धारा 145 के तहत रखते हुए प्रिय दत्त राम को रिसीवर नियुक्त किया. सिटी मेजिस्ट्रेट ने मंदिर के द्वार पर ताले लगा दिए. परन्तु एक पुजारी को दिन में दो बार ढांचे के अंदर जाकर दैनिक पूजा और अन्य अनुष्ठान सम्पन्न करने की अनुमति दे दी. ताला लगे दरवाजों के सामने स्थानीय श्रद्धालुओं और संतों ने जय श्रीराम, जय श्रीराम का अखंड संकीर्तन शुरु कर दिया.
अप्रैल 1984 में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा विज्ञान भवन-नई दिल्ली में आयोजित पहली धर्म संसद में जन्मभूमि के द्वार से ताला खुलवाने हेतु जन जागरण यात्राएं करने की घोषणा कर दी. इन रथ यात्राओं से हिन्दू समाज में ऐसा प्रबल उत्साह जगा कि फैजाबाद के जिला दंडाधिकारी ने 1 फरवरी 1986 को श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के द्वार पर लगा ताला खोलने का आदेश दे दिया. हिन्दुओं द्वारा मंदिर के भीतर जाकर श्रीराम लला की पूजा एवं आरती वंदन के कार्यक्रम पुनः शुरु हो गए.
नरेंद्र सहगल