रूस की क्रांति के बाद लेनिन-स्टालिन के नेतृत्व में जिन देशों पर वामपंथियों का आधिपत्य हुआ, वहां कम्युनिस्ट पार्टी और उसके सहयोगियों का एक गिरोह बना। उन्होंने अपने विरोधी लेखकों, कलाकारों को भयंकर यातनाएं दीं और अनेकों को मौत के घाट उतार दिया। रूस में अनेक लेखक साइबेरिया भेज दिए गए। गोर्की को भी कम्युनिस्टों के क्रोध का शिकार होना पड़ा। भारत के साहित्य संसार में प्रवेश के लिए कम्युनिस्टों ने हिंदी-उर्दू लेखक प्रेमचंद को सीढ़ी बनाया। रूस, पेरिस, इंग्लैंड में लेखकों की संगोष्ठी के बाद वामपंथी लेखकों ने भारत में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना की और इसके प्रथम अधिवेशन के उद्घाटन के लिए प्रेमचंद को बुलाया। यह उनकी अंतरराष्ट्रीय साजिश थी जो बहुत सोच-समझ कर बनाई गई थी। इसके बाद वामपंथियों ने प्रेमचंद को ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का संस्थापक एवं मार्क्सवादी लेखक बना दिया, जबकि सज्जाद जहीर, मुल्कराज आनंद आदि ने जो घोषणापत्र प्रेमचंद को भेजा था, उसमें न तो मार्क्सवाद की चर्चा थी और न ही मार्क्सवादी प्रगतिशीलता की। उसमें सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय उत्कर्ष तथा जीवन की आलोचना का लक्ष्य था। प्रेमचंद तो आरंभ से ही इस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर चल रहे थे। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि उनका उद्देश्य देश की स्वतंत्रता और भारतीय आत्मा की रक्षा करना है, लेकिन किसी वामपंथी लेखक ने इसे महत्व नहीं दिया। आज छह-सात दशकों बाद भी ये वामपंथी प्रेमचंद को अपने घेरे में बंद किए हुए हैं। इनका छल-कपट और साजिश अब हिंदी संसार के सम्मुख आ चुकी है। प्रेमचंद पर मेरी तीस पुस्तकें छप चुकी हैं, जिनसे प्रेमचंद की भारतीयता वाली वास्तविक मूर्ति और वामपंथियों का कपट जाल उजागर हो चुका है।
हिंदी साहित्य में वामपंथियों ने प्रेमचंद को केंद्र में रखा और प्रगतिशील हिंदी साहित्य-धारा को केंद्रीय धारा के रूप में स्थापित किया। चूंकि ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ का देश में बड़ा नेटवर्क रहा। कांग्रेसी सरकारों से उन्हें राजनीतिक मदद मिलती रही, रूसी सम्मान व यात्रा के रास्ते खुले और वे विश्वविद्यालयों में तथा पाठ्यक्रमों, पुरस्कारों पर कब्जे करते गए। इससे इनकी शक्ति का विस्तार हुआ और साहित्य में वामपंथियों का मजबूत गिरोह बन गया। जेएनयू वामपंथियों का गढ़ बना। साहित्य ही नहीं इतिहास, संस्कृति, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि विषयों में वामपंथी गिरोहों का अधिकार होता चला गया। हिंदी में मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह आदि सर्वश्रेष्ठ कवि बना दिए गए और दिनकर, नरेश मेहता, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, पंत आदि रद्दी की टोकरी में डाल दिए गए। ये वामपंथी भक्तिकाल के साहित्य (तुलसी, सूर आदि) को पाठ्यक्रमों से निकालने का प्रयत्न अब भी कर रहे हैं। जिन लेखकों ने अपने राष्ट्र, अपनी संस्कृति, अपने इतिहास व परंपरागत मूल्यों को साहित्य का आधार बनाया, वे इनकी दृष्टि में लेखक ही नहीं हैं। नरेंद्र कोहली, दयाप्रकाश सिन्हा, विमल लाठ, देवेंद्र दीपक, रामशरण गौड़, देवेंद्र आर्य, कमल किशोर गोयनका आदि तो अलेखक हैं। राजेंद्र यादव दिवंगत हो गए। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें, किंतु उन्होंने हंस का उपयोग प्रेमचंद के विचारों के प्रतिकूल किया। उन्होंने विष्णुकांत शास्त्री, विद्यानिवास मिश्र आदि की हिंदू चेतना की असंसदीय भाषा में आलोचना की और वामपंथी छतरी के नीचे स्त्री की देह को भोग का केंद्र बना दिया। नामवर सिंह और उनके चेले-चपाटों ने तो वामपंथी गिरोह ही बना लिया। ये जिसे चाहें, वह प्रोफेसर, जिसे चाहें वही पुरस्कृत और हिंदी का सर्वश्रेष्ठ लेखक। शंकर शरण और सुरेश गौतम की वामपंथियों की कलुष-गाथा पर पुस्तकें आई हैं, उन्हें देखना चाहिए।
वामपंथियों का तिलस्म सारे विश्व में टूट चुका है। भारत में भी उनका राजनीतिक परिवेश टूट चुका है और साहित्य में टूटने की प्रक्रिया में है। कार्ल मार्क्स को भारत की परिस्थितियों का ज्ञान नहीं था और ये वामपंथी भी उसी मूढ़ता में फंसे हैं। ये कैसे नासमझ हैं! देश में वामपंथ सिकुड़ गया है। वामपंथी भारत में लोकतंत्र की बात कहते हैं। यह इनकी विवशता है, किंतु प्रेमचंद ने लिखा था कि कम्युनिस्ट रूप भी ‘विचार का साम्राज्य’ चाहता है। इसीलिए उन्होंने लिखा था कि साम्यवाद तो पूंजीवाद से भी भयानक है और उससे उनका मोह-भंग हो रहा था। उन्होंने घोषणा की थी कि कम्युनिज्म जब जनता के प्रतिकूल हो जाएगा तो जनता उसे बदलकर नई व्यवस्था ले आएगी। प्रेमचंद ने ‘कैदी’ शीर्षक कहानी में लेनिन के रूसी कामरेडों के चरित्र का उद्घाटन भी कर दिया था। वामपंथी गुटबंदी का साहित्य में अब अंत का समय आ गया है। देश में राष्ट्र, संस्कृति तथा जीवन-मूल्यों से प्रेम करने वाले लेखकों को साहित्य में अपनी भागीदारी बढ़ानी होगी और देश के कल्याण एवं विकास के लिए आगे आना होगा।
– हिमांशु शुक्ला की फेसबुक वॉल से
साभार – पाञ्चजन्य