वि.सं.के. जयपुर, 14 दिसम्बर । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह सुरेश (भैय्या जी) जोशी ने कहा कि हमारे ऋषि मुनियों के चिंतन की प्रासंगिकता पर कोई प्रश्न चिह्न नहीं लग सकता, क्योंकि उनका चिंतन मूलभूत और सर्वकालिक रहा है। युगानुकूल उसकी व्याख्याएं बदलती रही है लेकिन मूलभूत विषय कभी नहीं बदला। इसलिए यह चिरंतन और शाश्वत है। इसी में विश्व के समग्र मानव का कल्याण समाहित है।
भैय्याजी जोशी गुरुवार को एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान की ओर ”एकात्म मानवदर्शन की प्रासंगिकता” विषय पर आयोजित व्याख्यान में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि किसी देश के मूलभूत चिंतन के आधार पर बनाई गई व्यवस्थाएं ही समाज को उन्नति के मार्ग पर ले जाती है। चिंतन से भटक जाते हैं तो कई प्रकार की विकृतियों का जन्म होता है। पंडित दीनदयाल ने कहा था कि साम्यवाद का जन्म मार्क्स के अंत:करण में जो समाज के प्रति वेदना थी उसके परिणाम स्वरूप हुआ था। उसमें अप्रमाणिकता नहीं थी लेकिन चिंतन में अपूर्णता थी। दुनिया भर में जो चिंतन चलता है, उसका परिणाम लोग यही चाहते हैं कि लोग सुखी हो, समृद्ध हो, सबका सम्मान और प्रतिष्ठा बढ़े।
उन्होंने सवाल किया कि आज विश्व की इस चकाचौंध में मूलभूत चिंतन क्या है, सही क्या है, उचित क्या है। उन्होंने कहा कि मूलभूत चिंतन को समाज के सामने रखने का काम पं. दीनदयाल उपाध्याय ने किया है, इसे ही हम एकात्म मानवदर्शन के रूप में जानते हैं। देश स्वतंत्र हुआ परंतु सुराज्य और स्वराज्य में हम भेद नहीं कर पाए। इसलिए उन महापुरूषों का चिंतन एक बार फिर स्मरण करने की आवश्यकता हुई। इसी चिंतन को पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने सबके सामने रखा। एक अवसर 1947 में आया था। अपने ही लोगों के हाथों में सब अधिकार आए। पश्चिमी विचारों के चिंतन के आधार पर चली हुई सारी योजनाओं पर विचार करते हुए मूल धारा में जोड़ने की बात हो सकती थी। परंतु दुर्भाग्य इस देश का रहा है कि उस समय का नेतृत्व पश्चिमी विचारों और पश्चिमी शिक्षा से प्रभावित था। दुनिया के चले हुए विकास मॉडल को सही मानते हुए जल्द बाजी में उसको स्वीकार कर लिया गया।
उन्होंन कहा कि कानून की दृष्टि से भारत विश्व के मंच पर एक स्वतंत्र देश के रूप में तो उभरकर सामने आया परन्तु हमारा देश ना तो स्वतंत्र चला ना ही अपनी विचारधारा पर चल पाया। एक मौका 1947 में था जो हमने खो दिया। अनुकरण करना ही हमारी नियति बन गई। लेकिन प्रमाणिकता से इस पर चिंतन करने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचारों से प्रेरित लोग कहते हैं कि भारत को ना अमेरिका बनना है ना ही चीन ना ही जापान बनना है। भारत को भारत बनाए रखने की आवश्यकता है। इसलिए भारत को भारत बनाए रखना है तो कई बातों का संघर्ष करते हुए मूलभूत विचारों पर चिंतन करने की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि गत सौ-डेढ़ सौ वर्षों में औद्योगिकीकरण की दिशा में जब हम चले तो मनुष्य के उपभोग के साधन की निर्मिती के लिए सारा तंत्र विकसित हुआ। केन्द्र में भी यही रहा कि मनुष्य के लिए जो चाहिए वह निर्माण करना है। इसकी कीमत पर्यावरण संकट के रूप में चुकानी पड़ रही है। पर्यावरण के संकट को हमने स्वीकार किया और आवश्यकताओं की पूर्ति की। प्राकृतिक संसाधनों पर वर्तमान पीढ़ी का ही अधिकार है ऐसा मानकर अधिक से अधिक लेने के लिए सारा तंत्र विकसित कर लिया। प्रकृति का मनुष्य के लिए वरदान है कि जितना चाहिए उतना मिलेगा। लेकिन मुनष्य ने कहा जितना ले सकता हूं उतना लूंगा। इस मूल कल्पना के कारण सारे शोध और तंत्र ज्ञान इसी के आधार पर विकसित हुआ। आगे चलकर सारे प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार करने की होड़ चली। अपने देश के संसाधन समाप्त हो गए तो दूसरे देशों के संसाधनों पर आक्रमण करेंगे। किसी न किसी तरह से भूमिगत संपदा पर भी अपना अधिकार करेंगे। ऐसा करते करते सारी दुनियां को तीन हिस्सों- विकसित, विकासशील और अविकसित देशों के रूप में बांट दिया गया। जो अविकसित देश है उनकी प्राकृतिक संपदा पर अधिकार जमाने वाले अपने आपको विकसित मानते चले गए। इस प्रकार कई विकृतियां आज हम अनुभव करते हैं।
उन्होंने कहा कि आज का विज्ञान और तंत्र चाहता है कि प्रकृति के साथ संघर्ष करके जितना प्राप्त कर सकते हो करो। भारत के मनीषियों ने कहा कि प्रकृति के साथ संघर्ष नहीं मित्रता करो। यदि मित्रता रखनी है तो संयम रखना पड़ेगा। इसके बारे में आज सारे पर्यावरणविद कहते ही हैं कि जो समाप्त होने वाली चीजें है उनका संयमित उपयोग कीजिए। उस पर वर्तमान ही नहीं आने वाली पीढ़ी का भी अधिकार है।
उन्होंने कहा कि हमारे महापुरूषों ने प्रकृति की रक्षा करने का रास्ता बताया है। अपनी सारी परंपराएं उत्सव प्रकृति को ही समर्पित है। पर्वों के अर्थों के पीछे की भूमिका को समझते हुए इसे आने वाली पीढ़ी में संस्कारित करना है। ताकि वह भी उसी भाव से उन पर्वों के महत्वों को समझे और अपने आचारण में रखे। जल की पूजा है, वृक्षों की पूजा है, पेड़- पौधों की पूजा है, पशु- पक्षियों की पूजा है। उस भाव को जगाने के लिए अपने यहां दो शब्द प्रयोग चले। पशु जगत का अपने जीवन में महत्व है इसलिए गाय को एक प्राणी के रूप में हमने कामधेनू कहा। वनस्पति जगत से भी हमारा संबंध है, इसलिए लिए प्रचलित शब्द चलाया कल्पतरू। हमारे उत्सव, परंपराएं और संस्कृति इस प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर चलो इसी संदेश देने वाली रही है। आज यदि इसमें कुछ विकृति आ गई है तो उस विकृति को दूर करने का काम भी करना पड़ेगा। कई परंपराएं उत्सव कर्मकांड बन गए हैं, समाज से इस कर्मकांड से बाहर लाने का काम करना पडेगा। इसलिए शाश्वत चिंतन को केवल ग्रंथों में सीमित करेंगे तो काम नहीं चलेगा। सामान्यजन स्वीकार करे, नीति निर्धारण करने वाले इसे स्वीकार करे, समझे इसको और समझकर अपनी अपनी मर्यादाओं और अपने कर्तव्यों को समझे।
सरकार्यवाह ने कहा कि चरण तो पंचवर्षीय हो सकते है लेकिन योजनाएं तो दीर्घकालीन बनती है। इसलिए इस पर समग्रता से विचार होने की आवश्यकता तो है। इसलिए जो कहा गया है मैं, मैं से समाज, समाज से सृष्टि और सृष्टि से परमेष्टि और उस परमेष्टि के अधिकार को हृदय से स्वीकार कर तालमेल करते हुए चलना है। विविधता में एकात्मता के सूत्र क्या है, वह ढूंढकर सबके सामने रखने की आवश्यकता है। यह काम भारत को करना पड़ेगा। परस्पर सहयोग, सहकार्य परस्परावलंबन के सूत्र को विश्व ने सीखा है। इस संदेश को देने को काम भारत को करना पड़ेगा, क्योंकि यह भारत की जिम्मेदारी है।
इस अवसर पर एकात्म मानवदर्शन अनुसंधान एवं विकास प्रतिष्ठान के अध्यक्ष महेशचंद्र शर्मा ने कहा कि आजाद भारत को किस रास्ते पर जाना है, वह रास्ता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने दिखाया है। भारत के प्राचीन चिंतन को पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने युगानुकूल रूप से स्थापित करने का काम किया है। हमारे यहां सम्पूर्ण जीवन व समाज को अंग्रेजियत के चश्मे से देखा गया है, जबकि पश्चिम विचार की नियति रही है कि वह स्वयं को नहीं जान पाए। ऐसे में एकात्म मानवदर्शन की आज नितांत आवश्यकता है।
कार्यक्रम में मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे, दीनदयाल शोध संस्थान के सचिव अतुल जैन और राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. आर.के. कोठारी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्र प्रचारक दुर्गादास और प्रांत प्रचारक निम्बाराम समेत कई लोग उपस्थित थे।