“ मीडिया का एक वर्ग चुनाव के बाद भी रवैया बदलने को तैयार नहीं है और एक सधे एजेंडे पर ही आगे बढ़ रहा है”
लोकसभा चुनाव के नतीजे आ गए और मीडिया फिर से अपने पुराने काम में जुट गया। वही काम जिसके चक्कर में मीडिया और तथाकथित बड़े पत्रकार पूरे चुनाव अभियान के दौरान अपनी खिल्ली उड़वाते रहे। झूठी खबरें गढ़ना और हर ऐसी खबर को दबाना जो उस झूठ को बेपर्दा करती हो, मीडिया का लगता है यही काम रह गया है। बीते 5 साल में उसने यही किया और अगले 5 साल भी शायद वह यही करने वाला है। यही कारण है कि गुरुग्राम में एक मुसलमान युवक का सिर्फ यह कह देना रातों-रात राष्ट्रीय चर्चा का विषय बन जाता है कि उसे कुछ लोगों ने पीटा और भारत माता की जय बोलने को कहा। वह तो किस्मत थी कि घटना का सीसीटीवी वीडियो सामने आ गया और झूठ का भंडाफोड़ हो गया। लेकिन बात इतनी सरल होती तब भी कोई बात नहीं थी। 27 मई की दोपहर तक गुरुग्राम मामले की सचाई सामने आ चुकी थी। पुलिस ने पत्रकारों को बुलाकर सारे तथ्य बता दिए थे। लेकिन एकाध को छोड़ लगभग सभी चैनलों और अखबारों ने इस खबर को जारी रखने का फैसला किया। शाम को सभी चैनलों पर इसे लेकर बहस आयोजित की गई और साबित किया गया कि भाजपा के सत्ता में लौटते ही ‘मॉब लिंचिंग’ की घटनाएं शुरू हो गई हैं। इंडिया टुडे चैनल की टिप्पणी थी कि ये संघ परिवार की संस्थाओं का काम है। एनडीटीवी ने तो झूठा आरोप लगाने वाले लड़के को हीरो बनाने के लिए स्टूडियो में ही बुला लिया। सब कुछ एक पूर्वनियोजित तरीके से किया गया। इस झूठ को उछालने के लिए मथुरा में लस्सी बेचने वाले भरत यादव की मुसलमानों द्वारा पीट-पीटकर हत्या और मेरठ में एक दुकानदार की बर्बर पिटाई के वीडियो की खबरें दबा दी गईं।
चुनाव नतीजों के बाद बंगाल और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा और राष्ट्रभावी संगठनों के लोग राजनीतिक हिंसा का शिकार हो रहे हैं। आश्चर्य तब होता है जब मीडिया का एक वर्ग इन घटनाओं को खबर के लायक मानने से भी इनकार कर देता है। वह इन घटनाओं का मूकदर्शक ही नहीं, मौन समर्थक भी है। क्योंकि ऊंचे संपादकीय पदों पर बैठे ज्यादातर लोग उसी विचारधारा का हिस्सा हैं जो इन हमलों के पीछे हैं। उधर उत्तर प्रदेश में कई जगहों पर अनुसूचित जाति के लोगों पर हमलों की खबरें आईं, क्योंकि उन्होंने समाजवादी पार्टी को वोट नहीं दिया था। खुद को ‘दलितों’ का हितैषी साबित करने वाली दिल्ली की मीडिया ने इन खबरों को सिरे से गायब कर दिया। आजमगढ़ में मतदान से ठीक एक दिन पहले अखिलेश यादव के समर्थकों ने अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति की बर्बर तरीके से पिटाई की थी। उस दिन वहां पर पूरे देश की मीडिया थी लेकिन वह खबर सिर्फ इसलिए दबा दी गई थी क्योंकि इससे महागठबंधन को नुकसान हो सकता था। लोकसभा चुनाव के नतीजों में जो बात सबसे प्रमुखता से उभरकर आई है वो ये कि लोगों ने पहली बार जात-पात की दीवार तोड़कर एक राष्ट्रीय उद्देश्य के लिए वोट दिया। वरना आजादी के बाद से ही कांग्रेस और उसकी विचारधारा वाले दलों ने राजनीति को तरह-तरह के जातीय समीकरणों में जकड़कर रखा था। यह बात उन सभी गिरोहों के लिए भी चिंता की है जो हिंदू समाज को जातियों में बांटकर रखना चाहते हैं। ईसाई मिशनरी और जिहादी संगठन हमेशा से इसी विभेद की रणनीति पर काम करते रहे हैं। मीडिया उनका सक्रिय भागीदार है। इसलिए अगले कुछ दिनों में जात-पात को बढ़ावा देने वाली और सामाजिक विद्वेष पैदा करने वाली फर्जी खबरों की भरमार हो जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। मुंबई में एक होनहार महिला डॉक्टर की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत के मामले में यही कोशिश हुई। एबीपी न्यूज ने जांच से पहले ही मामले को जाति से जोड़ दिया। लता मंगेशकर ने वीर सावरकर की जयंती के मौके पर उनकी प्रशंसा में ट्वीट किया, तो पूरा लुटियन गिरोह उन पर टूट पड़ा। कांग्रेस के नेताओं की अगुआई में कई तथाकथित पत्रकारों ने लता जी पर अभद्र टिप्पणियां करनी शुरू कर दीं। खुद को अभिव्यक्ति की आजादी का रक्षक बताने वाले किसी भी मीडिया समूह को लता मंगेशकर पर सोशल मीडिया के जरिए हो रहे हमले खबर के लायक नहीं लगे। इसी तरह स्वामी रामदेव का जनसंख्या नियंत्रण पर कानून की मांग करना भी अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में नहीं माना गया। समझना कठिन नहीं है कि क्यों एक लोकसभा चुनाव में जनता के जवाब के बावजूद मीडिया का बड़ा वर्ग अपना रवैया बदलने को तैयार नहीं है।