स्वराज्य पत्रिका ने तमिलनाडु में चल रही ईसाई मिशनरियों की मतांतरण की फैक्ट्री का पर्दाफाश करते हुए एक रिपोर्ट जारी की है. द्रविड़ आंदोलन, ‘आर्य-द्रविड़ विभाजन’ जैसे बोगस मुद्दों के ज़रिए तमिलनाडु में हिन्दुत्व/हिन्दू धर्म की जड़ों को दीमक की तरह चाट रहे पादरियों का कच्चा चिट्ठा रिपोर्ट में बयान है, और किस तरह से ‘सेक्युलरिज़्म’ के पिछले दरवाजे और द्रविड़वादी पार्टियों की साँठ-गाँठ से लोकप्रथाओं के साथ खिलवाड़ कर हिन्दुओं को ईसाई बनाने का खेल चल रहा है, इस पर विस्तार से बताया गया है.
‘द्रविड़ आंदोलन हमारा टाइम बम है हिन्दुत्व के खिलाफ’
रिपोर्ट की शुरुआत में ही स्वराज्य उद्धृत करती है कि तमिलनाडु के प्रख्यात आध्यात्मिक गुरु और शिक्षाविद चित् भावानन्द को. बकौल स्वराज्य, चित भावानंद के सामने एक बार एक मदुरै के ईसाई बिशप ने (शेखी बघारते हुए?) कहा था कि द्रविड़ आंदोलन चर्च की ओर से लगाया हुआ एक टाइम बम है, हिन्दुत्व को नष्ट करने के लिए. कैसे तमिलनाडु में एक झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है, जिसमें द्रविड़वादी नस्लभेद और ईसाई प्रोपागैंडा का मिश्रण होता है. और इसमें तीन मुख्य किरदारों के नाम और उनकी करतूतें भी स्वराज्य खुल कर बताती है.
बिशप एज़रा सरगुनाम
“हिन्दू धर्म/हिन्दुत्व जैसी कोई चीज़ नहीं होती; जो बोले होती है, उसे पीट-पीटकर अक्ल ठिकाने पर ले आओ” जैसी साम्प्रदायिक रूप से भड़काऊ बातें करने वाला यह पादरी स्वराज्य के अनुसार कोई हाशिए पर पड़ा ‘fringe element’ नहीं है, बल्कि द्रविड़वादी सत्ता के गलियारों में खासी पहुंच रखता है. हिंसा भड़काने की अपील के अलावा सत्ता की दलाली, गठबंधन बनवाना-बिगड़वाना भी इसके शगल हैं. सन् 1960 के दशक में सरगुनाम ने कुम्भ में आकर भी हिन्दुओं के बीच उनके देवताओं को ‘शैतान’ बताने की हिमाकत की थी. श्रद्धालुओं के कोप से उलटे पैर वापिस होना पड़ा था.
सरगुनाम का दावा है कि उसने एक करोड़ तमिल हिन्दुओं को ईसाई बनाया है और पाँच लाख चर्च राज्य भर में खड़े किए हैं. बकौल स्वराज्य, उसकी ‘ट्रेनिंग’ बिली ग्राहम नामक अमेरिकी पादरी के अंतर्गत हुई थी, जो डार्विन के जैवीय विकास सिद्धांत का विरोधी था, और यहूदियों के खिलाफ नस्लवादी बातें करने के लिए बदनाम था.
फादर जगत गास्पर
इस कैथोलिक पादरी के उभार को स्वराज्य सीधे-सीधे द्रमुक से जोड़ती है. आरोप है कि यह तमिल हिन्दुओं की लोक परम्पराओं को पहले ‘सेक्युलर’ बनाता है, और बाद में धीरे-धीरे जब लोग यह भूल जाते हैं कि यह ‘सेक्युलर’ नहीं, हिन्दू परम्पराएँ हैं, तो चर्च हिन्दुओं के टैक्स के पैसे से सहायता पाने वाले ईसाई शिक्षा संस्थानों के ज़रिए उन पर ईसाई बाना चस्पा कर लोगों के मतांतरण का खेल चालू कर देता है. इसके अलावा गास्पर एक तथाकथित ‘विद्वान’ मा. से. विक्टर के लेखन का प्रसार करने वाला प्रकाशन भी चलाता है, जिसमें तमिलों को ईसाईयत की ओर आकर्षित करने वाला प्रचार किया जाता है; उदाहरण के तौर पर, यह दावा किया जाता है कि एडम (ईसाई मिथकों के अनुसार परमात्मा का बनाया पहला इंसान) तमिल बोलता था. ऐसे दावों को द्रमुक शासन राज्य में जब भी आता है तो ऊपर से धकेला जाता है.
ऐसे प्रचार से पहले भरे गए द्रविड़ अलगाववाद को हवा दी जाती है, और उसके बाद उसकी आग से तमिलों की हिन्दुत्व से गर्भनाल को जला दिया जाता है. बकौल स्वराज्य, “अतः जब द्रमुक बिशपों का समर्थन करती है, तो यह केवल तात्कालिक वोट-बैंक की राजनीति नहीं होती.” यह हिन्दुओं और हिन्दुत्व के खिलाफ नस्लवाद और ईसाईयत का ‘कॉकटेल’ होता है.
मोहन सी लज़ारस
मोहन सी लज़ारस ईसाई प्रचारक है, जिसका दावा है कि ईसा मसीह ने उसके हृदय रोग का इलाज कर उसे ईसाईयत के प्रचार का आदेश दिया था. धार्मिक, श्रद्धालु तमिल हिन्दू परिवार में पैदा हुए मोहन लज़ारस का जन्म का नाम मुरुगन था. आज लज़ारस को कट्टर और रूढ़िवादी ईसाई के रूप में देखा जाता है, और स्टरलाइट प्लांट के खिलाफ तुतुकुडी में हुए आँदोलन में भी उसकी भूमिका मानी जाती है.
स्वराज्य के अनुसार उसके मंच पर अक्सर स्टालिन जैसे द्रमुक नेता देखे जा सकते हैं और उसने अपना हेडक्वार्टर एक रणनीति के तहत प्राचीन हिन्दू तीर्थस्थल तिरुचेंडूर के बगल में नालूमावाडी में बनाया है. बकौल स्वराज्य, उसका एक विवादास्पद वीडियो सामने आया था, जहाँ उसने तमिलनाडु में मंदिरों की बड़ी संख्या को इंगित करते हुए राज्य को ‘शैतान’ का गढ़ करार दिया था.
तमिलनाडु महत्वपूर्ण क्यों?
तमिलनाडु कई कारणों से हिन्दुत्व का वह गढ़ है, जिसकी हिन्दुओं को सबसे अधिक रक्षा करने की आवश्यकता है, और हिन्दू-विरोधियों की सबसे गिद्ध-दृष्टि भी इस पर है. पहला कारण तो यह कि हिन्दू आध्यात्मिक परम्पराएँ अपने विशुद्ध, मूल रूप में दक्षिण भारत में, विशेषतः तमिलनाडु में सर्वाधिक सुरक्षित हैं. उत्तर भारत और उत्तरी दक्षिण भारत में इस्लामी आक्रमण और इस्लाम के राजनीतिक रूप से थोपे जाने से कई हिन्दू परम्पराएं (जैसे वाराह मूर्ति, नरसिंह आदि का पूजन) केवल तमिलनाडु में आज भी जीवंत हैं. हाल ही में जब काशी विश्वनाथ मंदिर में 238 वर्ष बाद कुम्भाभिषेकं को पुनर्जीवित करने का प्रयास हुआ तो यह अहसास हुआ कि काशी में सभी को यह विधि विस्मृत हो चुकी थी- तब एक तमिल व्यक्ति ने इसकी विधि बताई थी. इसके अलावा चिदंबरम नटराजा समेत पाँच में से चार पंचभूतस्थळं, अरुणाचलम पहाड़ी समेत कई सारे विशिष्ट मंदिर और आध्यात्मिक महत्व के स्थान भी तमिलनाडु में हैं.
राजनीतिक दृष्टि से भी देखें तो तमिलनाडु का द्रविड़ आंदोलन कहीं-न-कहीं अन्य दक्षिणी भाषाई समूहों- मलयाली, तेलुगु, कन्नड़ को भी प्रभावित करता है. जब तमिलनाडु में हिंदी-विरोधी या द्रविड़ नस्लवादी आंदोलन जोर पकड़ता है तो वह इन राज्यों में प्रतिध्वनित हुए बगैर नहीं रहता.
ऐसे में तमिलनाडु में हिन्दू धर्म के खिलाफ बन रहे इस चक्रव्यूह के बारे में अगर राजनीतिक रूप से ज़्यादा कुछ न भी हो सके तो कम-से-कम एक सांस्कृतिक वार्तालाप शुरू किए जाने की तत्काल आवश्यकता है.
यह धर्म और संस्कृति की भी ज़रूरत है, और इस देश की राजनीति की भी. और अगर किसी को लगता है कि कृत्रिम रूप से बदली जा रही पंथिक पहचान अगर इस देश के राजनीतिक भविष्य और स्थिरता को खतरे में नहीं डालेगी, तो उन्हें पाकिस्तान मूवमेंट के उद्भव को एक बार और पढ़ने की ज़रूरत है.
साभार – Opindia.com