ईसाई षड्यन्त्रों के अध्येता कृष्णराव सप्रे (4 सितम्बर/जन्म-दिवस)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना से कई प्रचारक शाखा कार्य के अतिरिक्त समाज जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी काम क
रते हैं। ऐसा ही एक क्षेत्र वनवासियों का भी है। ईसाई मिशनरियां उन्हें आदिवासी कहकर शेष हिन्दू समाज से अलग कर देती हैं। उनके षड्यन्त्रों से कई क्षेत्रों में अलगाववादी आंदोलन भी खड़े हुए हैं। शासन का ध्यान स्वाधीनता प्राप्ति के बाद इस ओर गया।
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल को एक बार भ्रमण के दौरान जब वनवासी ईसाइयों ने काले झंडे दिखाये, तो उन्होंने मिशनरियों के षड्यन्त्रों की गहन जानकारी करने के लिए न्यायमूर्ति श्री भवानीशंकर नियोगी के नेतृत्व में ‘नियोगी आयोग’ का गठन किया। संघ ने भी उनका सहयोग करने के लिए कुछ कार्यकर्ता लगाये। इनमें से ही एक थे श्री कृष्णराव दामोदर सप्रे।
कृष्णराव सप्रे का जन्म म.प्र. की संस्कारधानी जबलपुर में चार सितम्बर, 1931 को हुआ था। उनका परिवार मूलतः महाराष्ट्र का निवासी था। छात्र जीवन से ही किसी भी विषय में गहन अध्ययन उनके स्वभाव में था। संघप्रेमी परिवार होने के कारण पिताजी संघ में, तो माताजी ‘राष्ट्र सेविका समिति’ में सक्रिय रहती थीं। इस कारण कृष्णराव और शेष तीनों भाई भी स्वयंसेवक बने। उनमें से एक डॉ. प्रसन्न दामोदर सप्रे प्रचारक के नाते आज भी ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ में सक्रिय हैं, जबकि डॉ. सदानंद सप्रे (अखंड भारत पुस्तक के लेखक) प्राध्यापक रहते हुए तथा अब अवकाश प्राप्ति के बाद पूरी तरह संघ के ही काम में लगे हैं।
जिन दिनों कृष्णराव ने शाखा जाना प्रारम्भ किया, उन दिनों युवाओं में कम्युनिस्ट विचार बहुत प्रभावी था। उसे पराजित करने के लिए कृष्णराव और उनके मित्रों ने गहन अध्ययन किया। इस प्रकार श्रेष्ठ विचारकों की एक टोली बन गयी। पांचवें सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी भी उसके एक सदस्य थे।
अपनी शिक्षा पूर्ण कर कृष्णराव प्रचारक बन गये। उन्हें शाखा कार्य के लिए पहले रायगढ़ और फिर छिंदवाड़ा विभाग का काम दिया गया। इसके बाद ‘नियोगी आयोग’ को सहयोग देने के लिए श्री बालासाहब देशपांडे के साथ उन्हें भी लगाया गया। उनकी अध्ययनशीलता और अथक प्रयास से वनवासियों ने ईसाई मिशनरियों के षड्यन्त्र के विरुद्ध सैकड़ों शपथपत्र भर कर दिये, जिससे ‘नियोगी आयोग’ इस पूरे विषय को समझकर ठीक निष्कर्ष निकाल सका।
भारत में ईसाई मिशनरियों का सर्वाधिक प्रभाव पूर्वोत्तर भारत में है। इस आयोग के साथ काम करते हुए कृष्णराव को जो अनुभव प्राप्त हुए, उसके आधार पर उन्हें पूर्वोत्तर में काम करने को भेजा गया। वहां के जनजातीय समाज में मिशनरियों द्वारा धर्मान्तरण का खेल बहुत तेजी से खेला जा रहा था। कृष्णराव ने ‘भारतीय जनजातीय सांस्कृतिक मंच’ की स्थापना कर वहां अनेक गतिविधियां प्रारम्भ कीं। इससे हिन्दू समाज की मुख्यधारा से दूर हो चुके लोग फिर पास आने लगे। अतः धर्मान्तरण रुका और परावर्तन प्रारम्भ हुआ।
जनता और कार्यकर्ताओं को जागरूक करने के लिए इस बारे में उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के संस्थापक श्री बालासाहब देशपांडे के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। उनके जीवन पर उन्होंने ‘वनयोगी श्री बालासाहब देशपांडे की जीवन झांकी’ नामक पुस्तक भी लिखी।
वनवासी क्षेत्र में भाषा और भोजन की कठिनाई के साथ ही बीहड़ों में यातायात के साधन भी नहीं है। इसके बाद भी कृष्णराव सदा हंसते हुए काम करते रहे। वृद्धावस्था में शरीर अशक्त होने पर वे जबलपुर ही आ गये। वहां संघ कार्यालय पर कल्याण आश्रम के एक कार्यकर्ता शिवव्रत मोहंती ने पुत्रवत उनकी सेवा की। 27 जनवरी, 1999 को वहां पर ही उनका निधन हुआ। उनकी स्मृति में छिंदवाड़ा में प्रतिवर्ष व्याख्यानमाला का आयोजन किया जाता है।