कश्मीर घाटी में कश्मीरी हिन्दुओं पर हमलों का क्रम 1989-90 में नहीं, अपितु उससे काफी पहले ही शुरू हो गया था. आजादी से पहले हिन्दुओं पर हमले शुरू हो गए थे. घाटी से हिन्दुओं को खदेड़ने की साजिश के तहत पहला नरसंहार फरवरी 1931 में बड़गाम के कनीकूट गांव में हुआ था. जहां एक ही परिवार के 8 सदस्यों की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी.
कनीकूट चडूरा तहसील के नगाम के पास एक गांव था, नगाम में काफी संख्या में कश्मीरी हिन्दू थे. लेकिन कनीकूट में सिर्फ दो हिन्दू परिवार थे. पं. ज़ना भट और जानकी नाथ का परिवार. पं. ज़ना भट्ट के परिवार में 12 सदस्य थे, इनमें से 3 लोग श्रीनगर में पढ़ाई कर रहे थे, गांव में 9 सदस्य रहते थे. जानकी नाथ का परिवार थोड़ी दूरी पर रहता था.
पं. ज़ना भट्ट के पूर्वज कभी उस गांव में आकर बसे थे. धीरे-धीरे उन्होंने गांव में काफी ज़मीन-जायदाद अर्जित कर ली थी. उनके सेबों के बाग़ान थे, क्षेत्र में प्रतिष्ठा थी. उनके खेतों में मुस्लिम मजदूर काम करते थे, सब कुछ ठीक था. इसी दौर में अंग्रेज घाटी में महाराजा हरि सिंह और कश्मीरी हिन्दुओं के खिलाफ मुस्लिमों को भड़का रहे थे. गांव-गांव, शहर-शहर आग भड़ाकायी जा रही थी. जिसका नतीज़ा ये हुआ कि जना भट्ट की प्रतिष्ठा भी पड़ोसी गांव के मुस्लिमों को खटकने लगी और उनको खत्म करने की साजिश रच डाली.
फरवरी,1931 की एक रात वाताकूल गांव के कुछ मुस्लिम ज़ना भट के दरवाज़े पर आए और परिवार के सभी लोगों को बाहर आने को कहा. सब पहले से एक दूसरे को जानते थे तो परिवार वाले उन लोगों पर भरोसा कर उनकी बात सुनने के लिए बाहर आ गए. जैसे ही ज़ना भट्ट परिवार के लोग बाहर निकले वैसे ही उन्होंने कुल्हाड़ी से हमला शुरू कर दिया. हमले से बचने के लिए परिवार के तीन लोग पहली मंज़िल पर बने कमरों की तरफ भागे. लेकिन हत्यारों की तादाद ज़्यादा होने के कारण नहीं बच पाए और पहली मंज़िल पर जाकर छिपे परिवार के लोग भी मारे गए.
इस भयानक हत्याकांड में महिलाओं और बच्चों तक को नहीं छोड़ा गया. हत्या करने बाद उन हत्यारों ने सभी सबूत मिटाने के लिए पहली मंज़िल पर आग लगा दी और वहां से फरार हो गए. उस नरसंहार में बस एक बच्चा जिन्दा बचा था, जो उस समय गुर्जर नौकर के साथ सो रहा था और ज़ना भटट् के तीन पोते – प्रेम नाथ, राधाकृष्णन और जिया लाल बच गए क्योंकि वे नरसंहार के समय श्रीनगर में थे. वफादार नौकर अपने साथ परिवार के अकेले बचे हुए लड़के को लेकर घर की एक खिड़की से छलांग लगाकर भागने में कामयाब हो गया, नौकर भागकर एक पड़ोसी किसान परिवार के पास गया और उसने पूरी घटना सुनाई.
नरसंहार के बाद पूरे गांव में हाहाकार मच गया. प्रशासन ने नरसंहार की जांच की. लेकिन हत्यारे इसकी तैयारी भी पहले ही कर चुके थे. उन्होंने पटवारी के साथ मिलकर वारदात की एक झूठी रिपोर्ट बनवाई. जिसमें पटवारी ने घर में अचानक आग लगने को 8 लोगों की मौत का कारण बताया, क्योंकि पटवारी भी कश्मीरी पंडित था, तो पूरी संभावना थी कि प्रशासन पटवारी की रिपोर्ट को सही मान ले.
लेकिन इससे हिन्दुओं में रोष खड़ा हो गया. हत्याकांड के विरोध में घाटी के तमाम हिन्दुओं ने विरोधस्वरूप 2 दिन का उपवास रखा. मामला बढ़ता देख नौकर की निशानदेही पर वाताकूल गांव के हत्यारों को गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया. मुकदमे की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश अर्जन नाथ अटल ने की. मुकदमे की अवधि के दौरान 13 आरोपियों को हिरासत में लिया गया जो सभी वातकूल गांव के रहने वाले थे. अकेले बच्चे और गुर्जर नौकर की गवाही के कारण न्यायाधीश ने 1933 में 9 मुख्य आरोपियों को मौत की सजा सुनाई.