सेवा साधनों पर निर्भर नहीं, सेवा के लिए मन चाहिए – भय्याजी जोशी

भोपाल. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य भय्याजी जोशी ने कहा कि सेवा का क्षेत्र ऐसा है, जो साधनों पर निर्भर नहीं है. सेवा के लिए मन चाहिए. मन जब तैयार होता है तो साधनों की परवाह किए बिना व्यक्ति सेवा कार्य के लिए निकल पड़ता है. सेवा कार्य योजना से नहीं किए जाते, यह तो मन की वेदना के आधार पर किए जाते हैं. सेवा करने वालों ने अपने कार्यों से ‘सेवा परमो धर्म:’ को सिद्ध किया है.

भय्याजी जोशी ने भारतीय विचार संस्थान न्यास की ओर से रवींद्र भवन, भोपाल में आयोजित तीन दिवसीय व्याख्यानमाला में अंतिम दिन ‘सेवा परमो धर्म:’ विषय पर वक्तव्य दिया. कार्यक्रम की अध्यक्षता भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (आइसर), भोपाल के निदेशक प्रो. गोवर्धन दास ने की.

मुख्य वक्ता भय्याजी जोशी ने कहा कि भारत के अलावा और कहीं धर्म के समान शब्द नहीं है. हमारी संकल्पना में धर्म एक व्यापक तत्व है. इसके दो पक्ष हैं – सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक. गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धर्म को आचरण में लाने वाले मुझे सबसे प्रिय हैं. इसी प्रकार सेवा भी सिद्धांत का नहीं, अपितु आचरण का विषय है. चिंतन जब व्यवहार में दृश्यमान होता है, तब सेवा दिखाई देती है. उन्होंने कहा कि श्रेष्ठ विचारों की व्याख्या करना अलग विषय है, लेकिन आचरण के माध्यम से उन विचारों के समीप जाना साधना है. हम सिद्धांत में कहते हैं कि विषमता नहीं होनी चाहिए, लेकिन आचरण में यह दिखाई देती है. कोई भी ज्ञान तब परिपूर्ण होता है, जब वह आचरण में दिखाई देता है. महाभारत के प्रसंग का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि दुर्योधन धर्म जानता था, लेकिन उसकी प्रवृत्ति धर्म के पालन की नहीं थी. इसलिए सेवा और धर्म को जानने से नहीं, अपितु उसको आचरण में उतारने की हमारी प्रवृत्ति बननी चाहिए. उन्होंने छत्तीसगढ़ के चांपा में संचालित कुष्ठ रोगियों की सेवा के प्रकल्प सहित कई उदाहरण बताए.

महात्मा गांधी जी के जीवन का एक प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा कि गांधीजी कहते थे – पुनर्जन्म में मेरा विश्वास है. इसलिए मुझे दूसरा जन्म रोटी के रूप में मिले ताकि किसी के पेट भरने के काम आ सकूं. यह विचार मन में उत्पन्न संवेदनाओं के कारण आता है. बुद्धि के आधार पर नहीं, जब हम संवेदनाओं के आधार पर विचार करते हैं तो सेवा का भाव आता है.

यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम अपने शारीरिक, बौद्धिक और आत्मिक बल का उपयोग किस प्रकार करते हैं. जब अपनी शक्तियों का उपयोग अपने लिए किया जाता है तो उसे अधर्म कहा गया है और जब दूसरों के लिए इनका उपयोग करता है, तब उसे धर्म कहा गया है. हमें उचित एवं अनुचित का विवेक विकसित करना चाहिए. इस विवेक के अभाव में सभी प्रकार की शक्तियों का दुरुपयोग ही होता है.

भय्याजी जोशी ने कहा कि श्रीमद् भगवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने यह नहीं कहा कि काम करो लेकिन फल की चिंता नहीं करो. यह निष्काम भाव से किया गया कर्म नहीं है. वास्तव में तो हमें प्रत्येक कार्य परिणाम के लिए ही करना चाहिए. कार्य का परिणाम आता ही है. लेकिन इस कार्य के परिणामस्वरूप जो फल प्राप्त होगा, वह मेरे लिए होगा, यह आवश्यक नहीं. इस भाव के साथ किया जाने वाला कार्य ही निष्काम भाव है. नरसी मेहता कहते थे कि ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ अर्थात् जो दूसरों के दुःख को समझते हैं, वही ईश्वर के भक्त हैं. तुकाराम जी महाराज ने कहा कि जो कष्ट में जीते हैं, उन्हें अपना मानने वाला ही साधु है. रामकृष्ण परमहंस को मूर्ख में भी ईश्वर को देखते थे. स्वामी विवेकानंद ने नर सेवा को ही नारायण सेवा कहा. राजा रंतिदेव का उदाहरण भी उन्होंने बताया.

प्रो. गोवर्धन दास ने कहा कि स्वयंसेवक का अर्थ है जो दूसरों की सेवा के लिए तैयार रहते हैं. ‘सेवा परमो धर्म:’ भारत का बीज मंत्र है. संघ के स्वयंसेवक भी मंत्र को लेकर जीते हैं. जहां भी आपदा आती है, संघ के स्वयंसेवक सबसे आगे खड़े होकर सेवा करते हैं. कोरोना काल में अपने प्राणों को हथेली पर रखकर संघ के स्वयंसेवकों ने सेवाकार्य किया था. जम्मू–कश्मीर से लेकर केरल तक प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के बाद भी स्वयंसेवक उदारतापूर्वक समाज की सेवा करते हैं. उन्होंने कई उदाहरण देकर बताया कि ‘सेवा परमो धर्म:’ भारत की परंपरा है. हमारी संस्कृति में नर को नारायण के रूप में देखा जाता है. आज की युवा पीढ़ी को भी यही संस्कार दिया जाना चाहिए. युवाओं में मानव सेवा का भाव पैदा करने में शैक्षिक संस्थाओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है.

भारतीय विचार संस्थान न्यास की ओर से स्वास्थ्य क्षेत्र में सेवा कार्यों के लिए श्री गुरुद्वारा प्रबंधक समिति, तात्या टोपे नगर को सम्मानित किया गया. श्री गुरुदेव नानक जी के 500वें प्रकाश पर्व पर समिति की ओर से डॉ. तेजिंदर सिंह के मार्गदर्शन में नवंबर 1969 में गुरुनानक परमार्थिक चिकित्सा केंद्र शुरू किया गया था. इस केंद्र के माध्यम से स्वास्थ्य के विभिन्न क्षेत्रों में किए जा रहे निरंतर सेवाकार्यों को ध्यान में रखकर न्यास ने संस्था का सम्मान किया है. सम्मान समिति के अध्यक्ष जोगिंदर पाल अरोड़ा ने ग्रहण किया.

पुस्तक ‘मेरी यात्रा : 1857 का आंखों देखा हाल’ का विमोचन

इस अवसर पर अर्चना प्रकाशन, भोपाल से प्रकाशित पुस्तक ‘मेरी यात्रा : 1857 का आंखों देखा हाल’ का विमोचन किया गया. यह पुस्तक विष्णुभट्ट गोडसे की मूल मराठी पुस्तक ‘माझा प्रवास’ का सम्पूर्ण अनुवाद है. लेखक एवं साहित्यकार रवींद्र काले ने यह अनुवाद किया है. पुस्तक का परिचय अर्चना प्रकाशन के अध्यक्ष लाजपत आहूजा ने कराया. उन्होंने कहा कि यह ऐसी पुस्तक है, जिसमें 1857 के आंदोलन का आंखों देखा हाल लिखा गया है. इस पर पूर्व में अमृतलाल नागर जी की पुस्तक आई थी, लेकिन उसमें सम्पूर्ण अनुवाद नहीं है. नागर ने बहुत से प्रसंगों को छोड़ दिया था, लेकिन इस पुस्तक में विष्णुभट्ट की लिखी पुस्तक का अक्षरश: भावानुवाद है.

 

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