सक्षम के राष्ट्रीय अध्यक्ष आदरणीय दयाल सिंह जी पंवार, केंद्रीय मंत्री आदरणीय थावर सिंह जी गहलोत और राज्य शासन के मंत्री आदरणीय चतुर्वेदी जी, आदरणीय बोहरा जी, उपस्थित नागरिक सज्जन, माता भगिनी और सक्षम के सभी कार्यकर्ता बंधु। आज के इस कार्यक्रम में उपस्थित रहकर इस कार्यक्रम की कुछ विशेषताओं का अनुभव करते हुए मुझे बड़ा आनंद हो रहा है क्योंकि एक नेत्रपीढ़ी के रूप में और यह प्रवास जब आरम्भ हुआ तबसे इन प्रयासों का मैं कम अधिक दूरी से या निकटता से साक्षी रहा हूं। ७-८ वर्ष पहले चिंतन, प्रयास, प्रयोग सही सब चले और बाद में सक्षम इस नाम से यह कार्य प्राम्भ हुआ और दस साल की अवधि में इसका एक सुंदर, पर्याप्त बड़ा ऐसा अखिल भारतीय रूप इस अधिवेशन में हम सब को अनुभव हो रहा है। यह पहली विशेषता है। इसका आनंद विशेष रूप से इसलिए भी है कि केवल बड़े हुए ऐसा नहीं है। एक तो जो कार्य हाथ में लिया है वही बड़ा कठिन है। यद्यपि दिव्यांगों का समाज में होना ये कोई आधुनिक बात है अथवा अनहोनी बात है ऐसा नहीं है, सदा रहा है। प्रकृति के जैसे खेल चलते हैं उसमें हर समाज में दिव्यांग होते हैं और हमारे समाज में भी रहे हैं, परम्परा से रहे हैं और समाज की संवेदना जब जागृत की तो उनकी दिव्यांगता को कोई अलग से देखा नहीं जाता था। हमारे समाज में उनको जो सहायता आवश्यक है वह सहायता करते हुए उनको भी केवल बराबरी में नहीं, आगे भी लाया जाता रहा है। सारी दुनिया में ऐसा होता रहा है हमारे देश में भी ऐसा होता है। हमारी परम्परा के अनेक महापुरुष आज के हिसाब से दिव्यांग में गिने जाएं, वह महापुरुष हैं उनकी जयंती, पुण्यतिथि हम करते हैं, उनके कृति को, उनके व्यक्तित्व, उनके कृतित्व का उल्लेख हम आज की परिस्थितियों से निपटने केलिए मार्गदर्शन के रूप में भी करते हैं और अपने कार्यों में भी उसका उपयोग करते हैं। परंतु एक ऐसी स्थिति आ गई है अपने समाज की संवेदनहीनता की तो आपस में सम्पर्क टूट गया एक दूसरे के प्रति सुख दुख की संवेदनाएं कम हो गईं, कोई प्रयास हमारे कम हो गए और उसका परिणाम कुल मिलाकर हमारे समाज की अवस्था के क्षरण में और उसके चलते प्रतिआक्रमणों में ऐसा होने लगा फिर पुनर्उत्थान की लहर चली तो हमने स्वतंत्रता पाई और इस सारे क्रम में जैसे समाज जीवन के सभी क्षेत्रों में हमने आगे बढ़ना प्रारम्भ किया वैसे दिव्यांगों के समाज के साथ रहकर समाज के सारे कृतित्व में बराबरी में हाथ बंटाकर आगे बढ़ने की मात्र प्रतीक्षा ही हो रही है। काम तो कर ही रहे थे, काम बिल्कुल नहीं किए ऐसा नहीं, अनेक लोग कर रहे थे, एक – एक दिव्यांगता को लेकर काम कर रहे थे, प्रांतों पर कर रहे थे, स्थानीय स्तरों पर कर रहे थे परंतु सम्पूर्ण भारत में सभी प्रकार की विकलांगताओं पर विचार करके दिव्यांगता का विचार करते हुए सबके तो एक साथ आगे बढ़ाने में समाज में रहकर कोई अखिल भारतीय प्रयत्न नहीं था। यह काम कर ही रहे हैं क्योंकि एक परिवार में कोई दिव्यांग होता है तो उसकी परवरिश में उस परिवार को कितनी कठिनाई जाती है यह हम सब जानते हैं, देखते हैं। सम्पूर्ण देश के दिव्यांगों का जिम्मा उठाकर और इस काम को करने वालों को कितने पापड़ बेलने पड़े होंगे, कैसी कैसी अवस्थाओं में से जाना पड़ा होगा, समाज को उस संवेदना से अनुप्राणित करने के लिए भी कितनी कठिन तपस्या करनी पड़ी होगी जिसकी कल्पना आप करेगे तो भी प्रत्यक्ष उस परिश्रम का अनुभव किए बिना या उसको निकट से देखे बिना उसकी सम्पूर्ण कल्पना नहीं हो सकती और इतने परिश्रम के बाद केवल एक आकार धारण करने के बाद दस वर्षों में ही और इसका जो पहला चरण है कार्य का कि सम्पूर्ण भारत में इस प्रकार की एक व्यवस्था खड़ी करना है। यह कर लिया गया है, यह देखकर आनंद भी होता है और उसके चलते और इन सब कार्यकर्ताओं का हृदय से बहुत बहुत अभिनंदन भी मैं करता हूं और दूसरी विशेषता इस कारण की यह है कि राज्य शासन और केंद्र शासन के प्रतिनिधि यहां पर हैं और उन्होंने दिव्यांगता के लिए क्या क्या चल रहा है, प्रयास शासन का हो पाया है तो ध्यान में आता है कि समाज में काम करने वाले कार्यकर्ता, समाज के साथ लगे हुए जो प्रतिनिधि हैं वह, उस क्षेत्र की सभ्यता जिनके पास है, ऐसे सब विद्वान उनका भी साथ है, इनका विचार और शासन की इस बारे में दृष्टि और विचार और प्रयास भी, अंग्रेजी में कहते हैं on the same page, ऐसे हैं, जीवन के हर क्षेत्र में शासन और समाज को सेम पेज पर होना चाहिए, ऐसा मिलता नहीं है, यहां पर मिल रहा है, यह भी एक बहुत अच्छी बात है और दिव्यांगों के लिए एक बहुत बड़ा शुभ संकेत है। ऐसा भी चलता रहे तो दिव्यांगता हमारे देश की समस्या नहीं रहेगी, शीघ्र दूर हो जाएगी, अगर इसमें कोई समस्या देखता है तो उसकी दृष्टि भी बदल जाएगी। इस प्रकार भविष्य का एक सुंदर चित्र उपस्थित करने वाला आश्वासन दायक दृश्य यहॉं पर मैं देख रहा हूं और देख रहा हूं इसलिए मन में आता है कि यह प्रगति चलती रहे यह विकास चलता रहे और अच्छा होता रहे, आगे बढ़ता रहे। उस दृष्टि से कुछ बातें सबको सोचनी चाहिए क्योंकि एक अच्छा दृश्य उपस्थित हुआ लेकिन यह पहला चरण हो गया कि अखिल भारतीय रचना खड़ी हो गई। काम करने वाली रचना खड़ी हो गई। समाज से और शासन से सहयोग लेने की उसकी सोग्यता भी बन गई है और सहयोग भी हो रहा है। परंतु बहुत आगे जाना पड़ेगा। यह तो पहला चरण हो गया, बहुत आगे जाना है। यहॉं तक जाना है कि दिव्यांगता समस्या के रूप में हमारे समाज में न रहे। जैसे पुराने समय में सहज रूप से इतनी सारी व्यवस्था समाज कर लेता था, ऐसी समाज की स्थिति उत्पन्न करना यह काम है और इसलिए समाज को समझना चाहिए कुछ बातों को, कुछ बातें कार्यकर्ताओं के समझनी चाहिए। समझने की पहली बात इसमें यह आती है कि हर व्यक्ति की इच्छा रहती है, विशेषकर प्रबुद्ध व्यक्ति की, कि अपने से कुछ अच्छा काम हो, तो जिसको जैसा लगता है उस हिसाब से सब अच्छे कामों में लगने का प्रयास करते हैं, कुटुम्ब के स्तर पर करते हैं, समाज के स्तर पर करते हैं। परंतु समता, समदृष्टि क्षमता विकास अनुसंधान मंडल के कार्य के पीछे ये स्वयं को कृतार्थ करने की प्रेरणा नहीं है। एक अहंकार से भी कभी कभी अच्छे काम होते हैं तो मेरी कीर्ति बढ़े, मुझे पुण्य मिले, ऐसे अच्छे परिणाम लाने वाली अच्छे स्वार्थ की प्रेरणा से भी बहुत अच्छे काम होते हैं। वह अच्छे काम चलते हैं तो उनके अच्छे परिणाम मिलते हैं यह अच्छी बात है। परंतु उस अहंकार की प्रेरणा समाप्त हो गई। व्यक्ति चला गया तो उन कामों में भी फिर ढिलाई आ जाती है और कभी कभी विकृति भी आ जाती है। ऐसी अहंकार की प्रेरणा भी इसमें नहीं है। संघ के स्वयंसेवक इसमें लगे हैं, संघ की प्रेरणा है लेकिन इस क्षेत्र में भी संघ के स्वयंसेवक काम करें, केवल इतनी बात नहीं है। इस क्षेत्र में भी स्वयंसेवक अच्छा काम करते हैं, ऐसा होने के बाद भी उसका कीर्ति लाभ हो, पुण्य लाभ हो ऐसी बिल्कुल इच्छा नहीं। यह तो समाज का कर्तव्य है, समाज इसको करने के लिए सक्षम बने। पहल हम करेंगे तो यह काम होगा, इसलिए हम पहल कर रहे हैं। इसके पीछे प्रेरणा क्या है, इसके पीछे करुणा की भी प्रेरणा मिली है दिव्यांगों के प्रति बिल्कुल बंधुवत हों, आप उनको करुणा दे न दें वह तो अपना काम कर लेंगे यह तो यहॉं बैठे हुए बहुत व्यक्तियों ने सिद्ध कर दिया है अपने जीवन में, दिव्यांग होने के कारण अपनत्व से सहायता की उनको जरूरत है और इसलिए उनके लिए काम करने वाली शुद्ध और अचूक प्रेरणाकहलाएगी जो आत्मीयता की प्रेरणा है, वही यह हमारा समाज है, ये हमारे समाज का अंग हैं, सारे समाज के साथ इनको बराबरी में खड़ा करना चाहिए, यह खड़ा है ऐसा दिखना ही चाहिए, नहीं तो यह दिव्यांगों की बात नहीं हमारा समाज एक अधूरा समाज कहलाएगा। दिव्यांगों की समस्या होना यह हमारे लिए एक कलंक है। ऐसा क्यों? उतने सारे हम लोग हैं, करोड़ों का समाज है, सब प्रकार की क्षमताओं वाला समाज है और अपने समाज का अंग बनें इन दिव्यांगों को साथ में चला नहीं सकते, बराबरी में ला नहीं सकते। देश के प्रति कार्य करने के कर्तव्य में वह भी साथ रहेंगे, देश के प्रति कर्तव्य करने में भी वे साथ रहे यह वह देख नहीं सकते। यह तो हमारी कमी है। यह तो हमारी कमी को पूरा करने का अवसर इन दिव्यांगों की समाज की उपस्थिति ने हमको दिया है। ये अपने हैं, ये हमारे अपने हैं, यहॉं हमारे जैसे समाज में स्थापित होने चाहिए यह अपनत्व की बात इस सारे कार्य के पीछे है। केवल दस वर्षों में इतना बढ़ना नहीं तो सम्भव नहीं होता। बल्कि हर कदम पर व्यक्ति को कार्य से विमुख करनेवाली घटनाएं सारी घटती हैं, घटती थीं, आज भी घटती होंगी, परंतु इसके बावजूद काम चलता रहता है, यशस्वी भी होता है। वह अपना काम भी इसलिए है क्योंकि अपनों के लिए हो रहा है। अब इस अपनत्व की प्रेरणा से कोई काम कर रहा है तो उस अपनत्व को अपने हृदय में धारण करके पूरे समाज ने भी इसको जैसा जितना हाथ लगा सकते उतना वैसा हाथ लगाना चाहिए। क्योंकि समाज जीवन का विचित्र स्वभाव भी बन जाता है कभी कभी, जो अपने यहां भी बना है वह है ठेका देने की प्रवृत्ति। अगर कहीं पर स्वच्छता का काम हम करते हैं तो कभी कभी ऐसा अनुभव आता है, आजकल बहुत कम आता है, पहले बहुत ज्यादा आता था कि शुक्रवार को सफाई अभियान लेंगे ऐसा declare करने के बाद अगर एकत्रीकरण नहीं गए तो बस्ती के लोग आते थे तो कहते थे आप आए ही नहीं, वह कचरा वैसा ही पड़ा है। अरे बस्ती में कचरा हो रहा है तो बसेती वाले साफ करें ऐसा नहीं हो सकता है क्या, लेकिन वह काम आपने लिया है न तो आप करें लेकिन आग मेरे घर में लगी है और मैं फायर ब्रिगेड की राह देखता हूं, मैं पानी उठाकर उसमें झोकने की तनिक भी चेष्टा नहीं करता, ऐसा एक विचित्र स्वभाव कभी कभी हो सकता है। हम उस स्वभाव के अधीन न हों। यह सक्षम नाम के संगठन का स्वीकृत कार्य है, वह तो उसको करेंगे ही लेकिन यह अपना काम है, अपनत्व से चलने वाला हम सब के करने का कार्य है। इसलिए सारे काम के स्वीकृत रूप का दर्शन आपको हो गया तो आपके मन में यह बात आनी चाहिए उस कार्य में मेरा योगदान कैसे हो सकता है, कहॉं हो सकता है, काम के लिए किससे चर्चा करूं, कैसे जाऊं, इस तलाश में आपको लग जाना चाहिए और शीघ्र अति शीघ्र पूरी प्रक्रिया पूरी करके अपने योगदान में लग जाना चाहिए। क्योंकि दिव्यांगों की समस्या केवल उनकी अपनी समस्या नहीं, केवल सक्षम की समस्या नहीं, सारे समाज की समस्या है। पूरे समाज का हाथ लगने से ही इस समस्या का पूर्ण निदान होगा। इसको ध्यान में रखना चाहिए। दूसरी बात है काम चलता है, समाज में अनेक काम चलते हैं, हरेक काम का स्वरूप अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार रहता है। अपने कार्य कीभी एक प्रकृति है उस प्रकृति को समझकर, उसकी क्षमताओं में रहकर उसकी प्रकृति के अनुसार काम करना चाहिए, नहीं तो इधर उधर से बहुत बातें दिखती ही हैं। कुछ उसमें से लगता है कि हम करें, कुछ तो ऐसी रहती हैं और कुछ हम न करें ऐसी भी रहती हैं। तो यह काम सेवा का है इसमें अहंकार का क्या काम है और अहंकार बढ़ाने वाली चीज का वरण हमें नहीं कपना पड़ेगा। सार्वजनिक कार्य में तो ऐसी बहुत बातें पहुंच जाती हैं, वहां चलती भी हैं। वे सही हैं या गलत यह मैं नहीं कहता, लेकिन मैं यह जानता हूं कि अगर सेवाभाव से चलने वासे काम में वह बातें आ जाएं तो परिणाम अच्छे नहीं होते। कार्यकर्ताओं की आदतें और कार्य की स्वस्थता इन दोनों पर इसका अनिष्ट परिणाम होता है और इसलिए अब इस अपनत्व के भाव से अपने समाज के अपने दिव्यांग बंधुओं की थोड़े से प्रयास से थोड़ी सहायता करते समाज में बराबरी पर लाने वाले हमारे कार्यकर्ता तो एक कार्यकर्ता के नाते हमको कैसा होना चाहिए, इसका चिंतन संगठन के द्वारा भी हमारे विभिन्न अभ्यास वर्गों में चलता होगा, चलना चाहिए, हमारा अपना भी चलना चाहिए।
नित्य करना चाहिए। क्योंकि आदतों की बात तो ऐसी है कि छोटी सी बात में से वह घुस जाती हैं और फिर बड़ी होने तक उसका पता नहीं चलता, तो ऐसी कहानी बचपन में आपने भी सुनी होगी। मैंने तो सुनी है कि एक बहुत कुशाग्र बुद्धि छात्र क्लास में था।
हमेशा क्लास में पहला आता था उसके साथ क्लास में कुछ प्रतिस्पर्धी थे लेकिन वो कभी उससे आगे नहीं निकल पाते थे एक चतुर स्पर्धी था। इसने उसका निरीक्षण किया कि जब यह उत्तर देता है तो क्या करता है उसके ध्यान में आया कि हर बार वह खड़ा होता है उत्तर बोलना शुरू करता है तो अपने शर्ट के बटन को हाथ लगाता है और उसको घुमाते हुए अपना उत्तर पूरा करता है। उसने ध्यान दिया, उसके ध्यान आया कि यह इसकी आदत है ऐसे ही हमेशा करता है, तो अगले बार के टैस्ट में उसने एक काम किया धीरे से कैसे भी तो वो उसके शर्ट के पास पहुॅंच गया, वहीं क्लास में पहुंचा या घर में जाकर पहले इससे मिला, पता नहीं, लेकिन किसी तरह उस बटन को उसने हटा दिया और पहले आने वाले सज्जन पहले उत्तर देने के लिए खड़े हो गये और बटन को हाथ लगाया तो वहां बटन नहीं, वे कनफ्यूज हो गये। और उनका नम्बर पीछे चला गया और इसका नम्बर आ गया । अब यह आदत की बात है और कोई उसमें कमी नहीं रही। एक आदत थी वह आदत पूरी नहीं हुई तो बाकी सारा मामला बिगड़ गया तो ऐसी कौन कौन सी आदतें हैं। लम्बा वर्णन मैं भी कर सकता हूॅं और पर्याप्त समय भी मुझे दिया है परन्तु में नहीं इसलिए करूंगा कि इसी वर्ष अपने कार्यक्रम में आदरणीय दत्ता जी होसबोले ने इसके बारे में बहुत विस्तृत बात को बताया है। आपकी रिपोर्ट में भी वो है और आपकी स्मारिका में भी वो है शायद आपके प्रत्यक्ष दोनों बातें आने वाली हैं तो एक बार पढ़ लीजिए, उसका ध्यान कर लें और जो आपमें होनी चाहिए वे भी हैं या नहीं इसका भी परीक्षण कर लें, कौन सी आदतें नहीं चाहिए उसका भी परीक्षण करके उनको निकालना और जो आदतें नहीं चाहिए वे अन्दर ना घुस पाएं। इसके लिए अनुशासन रहता है। हर एक संगठन में अपना रहता है वह अलग अलग रहता है। हम संघ में काम करते हैं तो संघ की आदतों के लिए आवश्यकता है कि मंच पर उतने ही लोग बैठें जितनी आवश्यकता है, 1, 2, 3 उससे ज्यादा संख्या होती नहीं, कभी कभी 5 हो जाती है तब हम कहते हैं कि मंच पर इतने लोग बैठने चाहिए क्या? अनेक राजनीतिक दल काम करते हैं तो उनकी यह आवश्यकता है कि जितने प्रमुख हों वो सब मंच पर बैठें। एकादि बार मंच टूट भी जाता है, लेकिन अब है, वहाँ ऐसी आवश्यकता है ऐसा नहीं करेंगे तो लोग काम में भी नहीं लगेंगे। अब प्रकृति का अन्तर है जहां की बात वहां के लिए ठीक, अच्छा बुरा नहीं होता जो काम कर रहे हैं उसके लिए क्या अच्छा है, ये होता है । इसलिए हमारा काम क्या है इसको जान लें, हमारा काम आत्मीयता का काम है, अपनेपन का काम, सेवा का काम, उसमें अहंकार को बढ़ाने वाली बात कहीं नहीं। और अकेले को नहीं करना है, केवल हमारे संगठन को ही यह नहीं करना, सारा समाज इसको करे, इसको देखना है। तो हमारा काम संगठन का है संगठन यानि सब लोग मिलकर काम करें और मिलकर काम करते रहें Coming together is beginning, working together is progress and staying together is success. तो सक्सेज तक जाना है तो बतलाना पड़ेगा, वह तो काम हम कर रहे हैं। साथ में सबको मिलकर काम करना चाहिए, वो भी हम कर रहे हैं, प्रारम्भ कर दिया है लेकिन यह चलता रहना चाहिए। जो एक बार साथ में आया है वह साथ में रहना चाहिए, उसमें यशस्विता है। हम अपने कार्यों में सम्पूर्ण समाज को सहभागी करेंगे और सहभागी हुआ सारा समाज हमारे साथ यह काम करता रहेगा। सब लोग मिलकर यह काम करते रहेंगें। इससे अच्छे कामों में पूरा समाज मिलकर काम करे, आगे ऐसी आदत बनती है। समाज का स्वास्थ्य बढ़ाती है और अनेक संकटों से समाज का बचाव करने की व्यवस्था भी अपने आप हो जाती है, आपस के भेद उनका लोप हो जाता है। एक दूसरे के बारे में समझदारी बढ़ती है, एक दूसरे के स्वभाव, विशेषताएॅं इन सब को समझ कर सबके साथ ठीक से बरतने की कला सबको आ जाती है। तो निमित्त सेवा का है निमित्त अपनत्व के चलते इस कार्यक्रम को करने का है तो आगे चल के एक बड़ा उद्देश्य साध्य होने वाला है कि सारे समाज को हम एक कर सकते हैं और वह उद्देश्य भी हमारे कार्य से जब सफल होगा तब हम कहेंगे We are success. हम सक्सेज हो गये, हम यशस्वी हो गये। यह लम्बा चलना है, तो लम्बा चलने में हम सब लोग साथ रहें, अपनी संख्या बढ़ाते रहें और बढ़ी हुई संख्या को कायम रखते हुए चलें, इसलिए मेरे कार्य करने की शैली कैसी होनी चाहिए, मेरे बोलने की शैली कैसी होनी चाहिए, मुझे कहां जाना चाहिए, कहां नहीं जाना चाहिए, अनेक बातों का विचार करना पड़ता है और बहुत सूक्ष्मता से करना पड़ता है और कदम कदम पर करना पड़ता है। ऐसा काम करते समय चिंतन और चिंतन करते समय कार्य, नहीं तो कई बार काम करने वाले कहते हैं, विनोबा जी ने कहा है कि हमारे काम करने वाले कहते हैं कि हम को काम बताओ, विचार विचार मत बोलो, यह बुद्धि पर तनाव हम को सहन नहीं होता, शरीर से कितना भी काम ले लो, कुछ भी कहो हम कर देगें, विचार करने को मत बोलो और हमारे यहां विचार करने वाले कहते हैं हम विचार को पूरा करेंगे यह शरीर को खटाना, परिश्रम करना हमें अच्छा नहीं लगता। उन्होंने कहा इससे काम नहीं चलता हमें कार्यशील होना चाहिए और चिंतन शील भी।
कार्यशीलता और चिंतनशीलता दोनों संतुलित परिमाण में साथ साथ जब बढ़ती हैं तब कार्य स्वस्थ रूप में चलता है। और यशस्वी होता है। एक का परिमाण ज्यादा हो और दूसरे का घट जाये तो काम नहीं होता। कर्मशीलता पर सहज ही हम ध्यान देते हैं क्योंकि करने उनको यह भी हैं, परिश्रम करना लोगों से मिलना, उनको जुटाना यह सब कार्य में आदमी जब लग जाता है उसको ज्यादा बताना नहीं पड़ता। यदि कार्य को उसने अपना माना है वो कर लेगा परन्तु साथ साथ में जो मैं कर रहा हूँ वह कार्यक्रम को सफल करने वाला है या पूरे कार्य को ही आगे चलकर यशस्वी बनाने वाला है, यह कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं को अपने में सोचना पड़ता है। इस दृष्टि से और दत्ताजी के उस कथन का आप बार बार पठन और चिंतन करते रहिए और अपने उस चिंतन के प्रकाश में कार्यकर्ता के नाते अपना विकास कैसे करना उस राह पर अपना कदम आगे बढ़ाते रहिए। इसकी आवश्यकता है। दिव्यांगों की समस्या बहुत बड़ी है। पहले तो यह काम मैं जानता हूं एक नेत्र पीड़ित से शुरू हुआ। केवल आंखों की समस्या से। उसमें काम करते करते ध्यान में आया केवल आंखों की समस्या ही नहीं है और भी समस्याएं हैं और सब की कहानी वही है को अपनत्व selective नहीं होता है कि हमारे मन का अपनत्व केवल दृष्टि बाधित लोगों के लिए है, बुद्धि बाधित लोगों के लिए नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता है। समाज अपना है इसका अर्थ है समाज की हर प्रकार की त्रुटियाॅं दूर करना हमारा काम है। ऐसा सब को लगना चाहिए और लगता भी है इसी के चलते ऐसा विश्वास है। बात इतनी सी है कहीं ज्यादा तो नहीं है यह भी देखते रहना है। पता नहीं समाज अपना इतना बड़ा है और इतना प्राचीन है कि उसके एक एक अंग तक पहूंचने में समय लगता है और जैसे जैसे पहुंचते है तो वैसे वैसे नई बात ध्यान में आती है। अच्छी भी बातें ध्यान में आती हैं और कुछ त्रुटियां भी ध्यान में आती हैं। इसके आधार पर अपने संगठन के कार्य को अधिक आयामों को स्पर्श करने वाला अधिक विस्तार में जाने वाला ऐसा हमको बना लेना है और ऐसा बनाना पड़ेगा तो प्रत्येक कार्यकर्ता में एक, अंग्रेजी में कहते है commitment- प्रतिबद्धता, इसकी आवश्यकता है । प्रतिबद्धता यानि अपने आपको उस कार्य के साथ बांध लेना, कार्य के साथ हम बन्ध गए तो फिर जो कार्य का होगा। वही मेरा होगा मेरा क्या होगा इसका मैं अलग विचार नहीं करूंगा, कार्य करें, कार्य यशस्वी हो तो उसमें मेरे विचार की मेरी यशस्विता की गांरटी है ऐसा एक कार्य के प्रति समर्पण का भाव मन में सतत रूप से जागृत रखने का मन में होना चाहिए। यह कठिन बात तो है लेकिन असम्भव बात नहीं है। क्योंकि इस प्रकार से कार्य करने वाले अनेक कार्यकर्ता अनेक क्षेत्रों में, अनेक विचारधाराओं में आज हमको प्रत्यक्ष देखने को मिलते हैं। यह हो सकता है, यह मैं कर सकता हूं, जैसे यहां अनेक दिव्यांगजन बैठे हैं, अपने अपने क्षेत्र में उन्होंने और प्रावीण्य हासिल किया है और समाज ने उसे माना है तो यह कैसे हुआ भाई? तो दिव्यांग होने के बाद भी उन्होंने पहली बात यह सोची कि यह हो सकता है। मैं कर सकता हूँ, और मैं कर सकता हूं में उनकी जो भावना थी उसको समर्थन मिला, आस पास के लोगों से। क्या तुम कर सकते हो इतनी छोटी बात और और तुम्हें करने की आवश्यकता है, चलो हम तुम्हारी सहायता करेंगें। ऐसा करते करते उनमें और समाज के अन्य लोगों कोई भेद नहीं, उल्टा हो वह ज्यादा अच्छे हैं। ऐसे ही प्रत्येक कार्यकर्ता को यह सोचना चाहिए कि यह काम करना है तो किस भाव से यह हो सकता है। कैसे तो और किस तरह कर सकता हूॅं और कैसे करूं यह सोचना है। क्या उसके रास्ते में आता है, उसको हटा दूंगा क्या पुष्ट करता है वह करूंगा। अभी हमारा एक स्तर आ गया है, छोटा काम यह बहुत छोटा काम है तो बाकी कार्यकर्ताओं में भी जब कार्य की चर्चा होती थी, बहुत गम्भीरता से सब नहीं लेते थे। यह मनुष्य स्वभाव है। इसमें कोई उनका दोष है ऐसा नहीं है। जो कहा जा रहा है, वह कितना सही है, इसका विचार लोग बाद में करते हैं, कौन कह रहा है यह पहले। तो कहने वाले ने कुछ किया होना होता है और कहने वाले का तो स्थान बनना पड़ता है। तब उस पर ध्यान दिया जाता है। अब मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि सक्षम का काम इस स्तर पर आ गया है कि उसकी बातें समाजमें, शासन में, प्रशासन में और सहयोगी कार्यकर्ताओं में भी गम्भीरतापूर्वक ली जाएंगी और अगर ऐसा मेरे कहने के बाद भी आपको अनुभव आ गया कि नहीं ली गईं तो इसका कारण वहां नहीं है जहॉं वह नहीं ली गई। उसका कारण हमारी अपनी स्थिति में है।
इसको हमें बनाते रहना पड़ेगा तो इस तो इस स्थिति में हम पहुंचेगे और ऐसी स्थिति जब आती है किसी की कि उसकी बात वजन से ली जाती है, सब लोग सुनते हैं और गम्भीरतापूर्वक विचार करते हैं तो हम बात कौन सी कर रहे हैं इसको भी तो सोचना पड़ता है। ऐसे व्यक्ति से पूछे कोई कि इधर उधर की बात न निकल जाए, सही बात निकले, सत्य बात निकलेगी, सुख शांति फैलाने वाली निकलेगी। इसी प्रकार की अपेक्षा रहती है। कोई दायित्व आता है तो हमारा एक स्वरूप बन गया है। वहबहुत आनंद का विषय है। लेकिन इस आनंद की दशा में यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इसके चलते एक दायित्व उत्पन्न हुआ है यह दायित्व क्या है, आप समझ सकते हैं कि इस कार्यक्रम की प्रतिष्ठि होगी सामाजिक रूप में, लेकिन देर सवेर तक यह बात सब दिव्यांग जनों तक पहुंचेगी कि सक्षम नाम का एक संगठन है, वह इतना बड़ा काम कर रहा है, उसका इतना बड़ा कार्यक्रम हुआ तो स्थान भर के गिव्यांग यह अपेक्षा मन में रखेंगे कि कैसे तो यह हमारे साथ भी सम्पर्क में आना चाहिए, सहायता हमको भी मिलनी चाहिए और आपने इस काम को स्वीकार करके अपने काम को आगे बढ़ाया है अब आपका दायित्व बनता है। हम इतने बड़े हो गए दिव्यांगों के ज्क्षेत्र में, हम सर्वव्यापी बनते चले जाएं और सर्वव्यापी बनें, केवल व्यापकता की बात नहीं है, दिव्यांगों की जो आवश्यकता है उसको पूर्ण करने के सहित व्यापक बनें तो हमारे लंगठन की रचना इस तरह हो कि हमारे संगठन के कार्यक्रम, उपलब्धतता इन सबका वह स्तर हो। इतना बड़ा अधिवेशन हमने कर लिया तो इतना बड़ा दायित्व भी हम पर हम चाहें या न चाहें हम पर आ गया। अब उसको पूरा करने के सिवाय दूसरा कोई चारा नहीं है। देखिए अर्जुन जैसा वीर योद्धा बड़ी हिम्मत से और तैयारी करके उतर गया महाभारत में और देखते ही उसको सगा यह तो हमे नहीं होगा इसलिए वापस जाने को उसने किया तो भगवान कृष्ण ने उसी को कान पकड़कर १८ अध्याय सुनाकर प्रबुद्ध किया। अनेक वीर थे जिनको लगा सकते थे, ११ अक्षुणी लोगों की सेना थी किसी को भी चुन लेंगे, भगवान आधार हो तो कोई भी सफल हो लेकिन भगवान ने ऐसा नहीं किया, भगवान ने उसी को तैयार किया, क्यों किया? क्योंकि जिसका दायित्व है उसको निभाना चाहिए, जो दायित्व लेता है, जिसको काम करने के लिए तैयार किया जाता है, उसको वह दायित्व आता ही है। दायित्व आने के बाद वह ऐसा नहीं कह सकता कि यहॉं तक ठीक है इसके आगे का हम नहीं कपेंगे, ऐसा नहीं है, अब यह कम्पल्शन नहीं होना चाहिए। बात जो मैंने कही उसमें लगता है कि कम्पल्शन आ गया लेकिन यह कम्पल्शन नहीं It is the matter of love. हमारे अपनत्व के चलते ये सारे दायित्व हैं ऐसे कितने उदाहरण समाज में मिलते हैं कि बड़ा भाई मजदूरी करकर के अपने छोटे भाई को डॉक्टर, इंजीनियर बनाता है, क्यों बनाता है? क्योंकि वह छोटे भाई को बड़े करने वाली जिम्मेदारी को कम्पल्शन नहीं मानता है, वह अपना है, उस अपनत्व के भाव से ही हम यहां तक आए हैं, उस अपनत्व के भाव के बल पर ही हम आगे की जिम्मेदारी निभा सकेंगे ऐसा विश्वास भी मन में होना चाहिए, ऐसा भाव भी होना चाहिए। कार्य का अपनत्व ही तो है शेष महेश, गुणेश, दिनेश, सुरेश निरंतर ध्यावहि, जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद बतावै, नारद शेष तो व्याधि हटै, पचि हार थके पुनि पार न पावै। भगवान की प्राप्ति इन गुणों के लिए भी कठिन कार्य है। लेकिन जहॉं अपनत्व है वहां सा अहिरन की छछिया भर छाछति नाच नचावै। जिसको पाना इस तरह कठिन है, छछिया भर छाछ के लालच में नाच नचाता है। यह जीवन का बोध है। प्रेम से सहज कर सकते हैं। महाराष्ट्र में एक कथा चलती है, सही है या गलत मालूम नहीं। लेकिन शिवाजी महाराज की राजधानी रायगढ़ में एक किला है वहां सूर्यास्त में दरवाजा बंद, अंदर के लोग बाहर नहीं जाएंगे, बाहर के अंदर नहीं आएंगे। नीचे गॉंव की एक अहिरानी, दूध बेचने वाली आ गई थी दूध बेचने के लिए, बेचते बेचते देर हो गई, दरवाजे बंद हो गए। इसका छोटा सा दूध पीता बालक घर में है, अब वह चिंता में पड़ गई, रोता होगा, रोता होगा, कैसे करना, तो एक चट्टान जो बड़ी मुश्किल मानी जाती थी उसपर से वह कूद गई और घर पहुंच गई समय पर और शिवाजी महाराज उस समय थे किले में और उस अहिरानी को लोगों ने सुना था कि दरवाजा खोलो मुझे जाना है, नहीं खोलेंगे, ये सारे संवाद सुने थे लोगों ने। उनके कान में भी बात गई कि कल एक माता यहॉं रह गई थी उसका क्या हुआ? सुबह उठकर तो फिर गांव में उन्होंने अपने सैनिक भेजे, पता चला यह तो आ गई, ठीक है तो उन्होंने उसको बुलाया और पूछा कि तुमने क्या किया? कैसे बाहर गईं? कौन सा तुमको लूप होल मिला हमारे पहरे में, परकोटे में कि तुम जा सकीं? तो उसने कहा मालूम नहीं, वहां एक ऊंचा स्थान था वहां से मैं कूद गई, तो ले गए उसको वहां पर, देखा यह तो बड़ी ऊंची चट्टान है जो उससे कूदेगा उसका कपाल मोक्ष तो निश्चित है। ऐसा ही था, बोले कूद के बताओ, वह बोली अब नहीं कूद सकती, मुझे क्या मरना है, यह तो आत्महत्या है। उन्होंने कहा कल तो तुम कूद गईं? उसने कहा वह मेरे ध्यान में नहीं आया। बच्चे की चिंता में मैं व्याकुल थी कि हो गया। फिर महाराज ने उसको और कठिन बनाया। उसका सम्मान किया। आज भी यह कहनी थी नहीं थी मासूम नहीं लेकिन उसके नाम से वहां पर किले का एक बुर्ज है जहां पर उन्होंने डिफेंस के लिए परकोटा बनाया। यह अपनत्व का चमत्कार है तो सबके ध्यान में यह बात पक्की रहे कि हम यह बड़ा अच्छा काम कर रहे हैं। करते करते हमने समाज की मान्यता प्राप्त कर ली, इतने बड़े हो गए और बड़ा होना है, उसका सम्बल क्या है? उसका सम्बल हमारी गुणवत्ता है, उसका भी सहयोग है लेकिन केवल वह नहीं है। हमारी कार्यशक्ति केवल वह नहीं है। यह बहुतों के पास रहती है लेकिन उपयोग नहीं है। हमारे पास भी है, उसका उपयोग हो रहा है, बहुत ठीक ढंग से हो रहा है, क्यों हो रहा है क्योंकि सारे कार्य के आधार में यह अपनत्व की संवेदना है। इस अपनत्व की संवेदना को लेकर सारे कार्य की यशस्विता होगी और समाज को लाभ होगा। इस अपनत्व की संवेदना से सारा समाज एकत्रित होगा और जैसा कि मैंने कहा कि अपनत्व की यह संवेदना जब सारे समाज में छा जाएगी, दिव्यांगों पर सीमित नहीं रहेगी, वह सम्पूर्ण विश्व के लिए हो जाएगी। इसी संवेदना में से विश्व गुरू भारत खड़ा करने का कृतित्व यह समाज दिखा सकेगा। अपने कार्यों की सम्पूर्ण सफल परिणति भी ऐसे ही शीघ्रता पूर्वक प्राप्त हो ऐसा बल और प्रेरणा आपको भगवान दे। इस प्रार्थना और शुभाशय के साथ मैं अपने चार शब्द समाप्त करता हूं।
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