2 जनवरी/जन्म-दिवस – अखंड कर्मयोगी माधवराव देशमुख
संसार में करोड़ों लोग जन्म लेते हैं और नियति के शाश्वत नियमानुसार अनन्त में विलीन हो जाते हैं। उनमें से कुछ ही ऐसे भाग्यवान होते हैं, जो देहान्त के बाद भी अपने व्यक्तित्व, कृतित्व और निष्ठा की छाप छोड़कर सदा के लिए अमर हो जाते हैं। कबीर दास जी ने ऐसे लोगों के लिए लिखा है –
कबीरा जब तुम आये थे, जग हँसे तुम रोये
ऐसी करनी कर चलो, तुम हँसो जग रोये।।
2 जनवरी, 1918 को काशी में जन्मे माधवराव ने इन पंक्तियों को सार्थक कर दिखाया। उनकी ननिहाल नागपुर के पास रामटेक में थी। माधव की रुचि शिक्षा में तो थी, पर विद्यालय में नहीं। उनके बड़े भाई अध्यापक थे। उन्होंने माधव को कई बार साथ ले जाना चाहा; पर असफल रहे। फिर इन्हें काशी के प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य जागेश्वर पाठक के पास भेजा गया। यहाँ माधवराव ने शिक्षा के अनेक पड़ाव पार किये; पर कभी प्रमाण पत्र नहीं लिये। 1937 में माधवराव ने अपने घर के पास लगने वाली ‘जंगमबाड़ी’ शाखा पर जाना प्रारम्भ किया। संघ कार्य धीरे-धीरे उनके मन में बस गया। उनके प्रयास से वाराणसी और उसके आसपास अनेक नयी शाखाएँ प्रारम्भ हुईं। संघ शिक्षा वर्गों में प्रशिक्षण लेकर वे संघ के प्रचारक बन गये।
वार्तालाप की उनकी रोचक शैली के कारण उनके बौद्धिक, बैठकों आदि में उल्लास छाया रहता था। वे जौनपुर, गोरखपुर, प्रयाग, कानपुर, लखनऊ, मेरठ, आगरा, आदि अनेक स्थानों पर प्रचारक रहे। हर स्थान पर उन्होंने समाज के प्रतिष्ठित लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ जोड़ा। 1956 में उन्होंने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। इसके बाद भी उनके जीवन की प्राथमिकता संघ ही था। इसका श्रेय उनकी पत्नी को है, जिन्होंने बहुत कम खर्च में घर चलाया। वे उनके प्रवास में कभी बाधक नहीं बनीं। जब माधवराव हृदयरोग से पीड़ित थे, तो कई बार वे स्वयं ही उनके साथ चली जाती थीं; पर उनका प्रवास न छूटे, इसका वे पूरा ध्यान रखती थीं।
देश विभाजन के बाद जब विस्थापित हिन्दू भारत में आये, तो उनकी सेवा के लिए संघ ने कई शिविर लगाये। इसमें बहुत पैसा खर्च हो रहा था। माधवराव अपनी प्रभावी वक्तृत्व शैली से ऐसे सम्पन्न लोगों से भी धन ले आये, जिनके पास जाने का कोई साहस नहीं करता था। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध के समय उन्होंने भूमिगत रहकर अपने क्षेत्र में सत्याग्रह का संचालन किया। 1964 में विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना के बाद उन्हें इसके संगठन का काम सौंपा गया। माधवराव पूरे परिश्रम से इसमें लग गये। संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी के प्रति उनके मन में बहुत श्रद्धा थी। अनेक विद्वान धर्माचार्यों की उपस्थिति में 1973 में उनके स्वास्थ्य लाभ के लिए काशी में माधवराव के घर पर ‘महारुद्राभिषेक’ का आयोजन किया गया।
1975 में संघ पर प्रतिबन्ध लगने पर वे डेढ़ साल तक वाराणसी, नैनी आदि कई जेलों में बन्द रहे। उनके रहने से जेल का वातावरण भी उत्साह एवं संस्कार से भर उठता था। इस समय तक वे अनेक रोगों से पीड़ित हो चुके थे। प्रतिबन्ध हटने के बाद वे फिर उत्साह से काम में लग गये और यथासम्भव प्रवास भी करने लगे; पर अब शरीर साथ नहीं दे रहा था। उनकी इच्छा संघ शिक्षा वर्गों में जाने की थी; पर विधि के विधान के अनुसार 14 मई, 1982 को वे सदा-सदा के लिए अनन्त की यात्रा पर चले गये।