कश्मीर घाटी में तीन साल की एक बच्ची के साथ बलात्कार हुआ। पीड़िता मुसलमान है और बलात्कारी भी। शायद यही कारण है कि किसी बुद्धिजीवी ने यह नहीं कहा, ‘इस देश में डर लगने लगा है।’ वे लोग कहां हैं, जिन्होंने पिछले साल जम्मू की एक ऐसी ही घटना को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाने की कोशिश की थी
मई के दूसरे सप्ताह में कश्मीर घाटी में इंसानियत को शर्मसार करने वाली एक घटना घटी। उत्तर कश्मीर के बांदीपुरा जिले के संबल में तीन साल की एक मासूम बच्ची के साथ बलात्कार हुआ। इस घटना ने पूरी घाटी में इतना रोष पैदा कर दिया कि आरोपी की गिरफ्तारी को लेकर किए जाने वाले प्रदर्शन हिंसक हो गए और पुलिस को बल प्रयोग करना पड़ा। इत्तेहादुल मुसलमीन ने 13 मई को पूरी घाटी में बंद का आह्वान किया । ‘इत्तेहादुल मुसलमीन’ एक मजहबी संगठन है, जो हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का घटक है। हालांकि इस मामले में आईपीसी की धारा 363/ 342/ 376 के तहत एफआईआर दर्ज कर आरोपी युवक को गिरफ्तार कर लिया गया है। पिछले साल जम्मू क्षेत्र के कठुआ जिले के रसाना गांव में एक घुमंतू बकरवाल मुस्लिम परिवार की आठ साल की बच्ची से तथाकथित सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या के मामले ने इस कदर तूल पकड़ा था कि इसकी गूंज संयुक्त राष्ट्र तक पहुंचा दी गई थी। तथाकथित बलात्कार इसलिए कि बच्ची के पोस्टमार्टम की पहली रिपोर्ट में यह साफ कह दिया गया था कि उसके साथ बलात्कार नहीं किया गया। उसके शरीर पर जोर-जबरदस्ती के निशान भी नहीं हैं। फिर पोस्टमार्टम की एक दूसरी रिपोर्ट आई, जिसमें पहली रिपोर्ट के साथ छेड़छाड़ करके बदलाव किया गया था। हालांकि यह मामला जनवरी, 2018 का था, लेकिन मीडिया की सुर्खियों में आया अप्रैल, 2018 में।
मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार किसी भी समाज के माथे पर कलंक है। यह एक घिनौना अपराध है जिसे किसी जाति समुदाय या मजहब विशेष के साथ नहीं जोड़ा जा सकता। लेकिन कठुआ मामले को पूरी तरह सांप्रदायिक रंग दे दिया गया था। बच्ची का नाम जान-बूझकर सार्वजनिक किया गया क्योंकि रसाना गांव के एक सम्मानित हिंदू परिवार पर ‘सामूहिक बलात्कार’ का आरोप लगाया गया था। आनन-फानन में देशभर में वामपंथी, सेकुलर बुद्धिजीवी सक्रिय हो गए। जम्मू-कश्मीर और दिल्ली में प्रदर्शन हुए। यही नहीं, करीना कपूर, सोनम कपूर, स्वरा भास्कर और हुमा कुरैशी जैसी जानी-मानी अभिनेत्रियों ने ‘मैं शर्मिंदा हूं’, ‘हमारी बच्ची के लिए न्याय’, ‘आठ वर्षीय के साथ देवी मंदिर में गैंग रेप, हत्या’ की तख्तियां लेकर तस्वीरें खिंचवार्इं जो तेजी से सेकुलर मीडिया और सोशल मीडिया में वायरल हो गई। यह एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था जिसके तहत हिंदू धर्म, हिंदुओं और मंदिरों को बदनाम किया जाना ही एकमात्र उद्देश्य था।
मामले ने पूरे राज्य में ऐसा तूल पकड़ा कि इसकी सचाई जानने वाले आरोपियों के पक्ष में लामबंद हो गए। राज्य के मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा। इस मामले को सुनियोजित तरीके से मीडिया, बुद्धिजीवियों तक ले जाने वाले तालिब हुसैन को उसी की बकरवाल बिरादरी के स्थानीय नेताओं ने बेनकाब किया कि उसे कैसे तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का संरक्षण प्राप्त है और कैसे भारी रकम का लेन-देन हुआ और कैसे पीड़िता बच्ची के परिवार को आर्थिक मदद के नाम पर दिए गए चंदे की रकम को हुसैन ने अपने लिए इस्तेमाल किया। सुर्खियां बटोरने के बाद हुसैन खुद भी जेल गया। उसकी पत्नी ने घरेलू हिंसा का मामला दर्ज कराया, तो उसकी साली ने बलात्कार का मामला दर्ज कराया। एक मासूम बच्ची के नाम पर राजनीति करने वालों की अपनी खुद की क्या फितरत है, यह बहुत जल्दी जनता के सामने आ गया।
एक ही राज्य के दो दिल दहला देने वाले मामले। लेकिन दोनों पर बुद्धिजीवियों, सेकुलरों की प्रतिक्रिया का तरीका एकदम अलग। शायद इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि इस मामले में आरोपी और पीड़िता दोनों ही मुसलमान हैं। इस मामले को उठाने में उन्हें कोई सामाजिक, राजनीतिक या मजहबी फायदा नजर नहीं आता। यदि आरोपी का नाम ताहिर अहमद मीर न होता, कोई हिंदू नाम होता तो इनकी दुकानदारी जम जाती। दरअसल, ऐसे लोग किसी मामले को उसकी गंभीरता को देखते हुए नहीं उठाते हैं, बल्कि यह देखते हैं कि उसको उठाने से उन्हें कितना लाभ हो सकता है। इनसे जुड़े महिला संगठन भी इसी तर्ज पर काम करते हैं। ये देखते हैं कि जिस राज्य में घटना हुई, वहां सरकार किसकी है? यदि कांग्रेसी, समाजवादी या वामपंथी सरकार होती है तो ये चुपी रहते हैं, यदि भारतीय जनता पार्टी की सरकार होती है तो यह साबित करने की पूरी कोशिश की जाती है कि यह सरकार अल्पसंख्यक विरोधी है, उन्मादी है और मानवाधिकारों का हनन करती है और भाजपा के राज में कानून-व्यवस्था खराब है। इन सेकुलरों का जबरदस्त नेटवर्क है। सेकुलर मीडिया, कलाकार, बॉलीवुड, लेखक, शैक्षिक संस्थाएं, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं सब एक इशारे पर लामबंद होकर एक स्वर में आवाज बुलंद करते हैं।
एक आठ वर्ष की बच्ची, एक तीन वर्ष की बच्ची, दोनों मुस्लिम। एक की मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि नहीं, दूसरी की मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार की पुष्टि हो गई है। तीन वर्षीया पीड़ित बच्ची जिंदा है और उस दरिंदे को पहचानती है जिसने उसके साथ पाश्विकता की। लेकिन चारों ओर खामोशी है। न अब कोई शर्मिंदा है, न अब कोई मजहबी रंग दिया जा रहा है। कोई कैंडिल मार्च नहीं हुआ। कठुआ मामले को संयुक्त राष्ट्र तक ले जाने वाली जानी-मानी वकील इंदिरा जय सिंह ने तो मानो जुबान पर ताला ही लगा लिया है। स्वरा भास्कर को उस बच्ची से ज्यादा चुनाव में दिलचस्पी रही। करीना कपूर खान और शबाना आजमी ने एक बार भी नहीं कहा कि रमजान के पाक महीने में छोटी बच्ची के साथ ऐसी दरिंदगी इस्लाम पर कलंक है।
ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण आपको मिलेंगे। ताजा उदाहरणों में राजस्थान के अलवर में दलित महिला और उसके पति का अपहरण और फिर महिला के साथ पति के सामने ही सामूहिक बलात्कार और दिल्ली में अपनी बेटी से छेड़छाड़ का विरोध करने वाले ध्रुव त्यागी की मोहम्मद आलम और जहांगीर खान द्वारा सरेआम हत्या। इन मामलों में सेकुलर और अवार्ड वापसी गैंग को मानो सांप सूंघ गया हो। प्रतिक्रिया तो दूर, मानवीय संवेदना भी व्यक्त नहीं की गई। कांग्रेस शासित राज्य की अलवर पुलिस ने एक सप्ताह तक सामूहिक बलात्कार के मामले को दबा कर रखा, ताकि राजस्थान में 6 मई को होने वाला मतदान संपन्न हो जाए। लेकिन सेकुलरों ने इस मामले पर आश्चर्यजनक चुप्पी साधी। जो भाजपा शासित राज्य में होने वाली अपराध की घटनाओं पर- ‘भारत में डर लगता है’-जैसे भारी-भरकम बयान देते हैं, उनके मुंह से अलवर कांड पर कोई बयान, कोई ट्वीट नहीं आया। आखिर यह एकतरफा सोच क्यों? दरअसल, वाम विचारधारा से जुड़े लोग किसी घटना पर कुछ बोलने से पहले पीड़ित का मजहब या जाति देखते हैं। ऐसे लोगों को बेनकाब करने की जरूरत है।
सर्जना शर्मा
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