वीर रस के प्रसारक स्वामी शिवचरण लाल जी
प्रायः हर व्यक्ति में कुछ न कुछ गुण एवं प्रतिभा होती है। संघ की शाखा में आने से ये गुण और अधिक विकसित एवं प्रस्फुटित होते हैं। शाखा एवं अन्य कार्यक्रमों में गीत एवं कविता के माध्यम से भी संस्कार दिये जाते हैं। शिवचरण लाल जी ऐसे ही एक प्रचारक थे, जो विभिन्न कार्यक्रमों में वीर रस की कविताओं का इतने मनोयोग से पाठ करते थे कि श्रोता मन्त्रमुग्ध हो जाते थे। कविता समाप्त होने पर ऐसा लगता था मानो श्रोता सम्मोहन से छूटे हों।
शिवचरण लाल जी का जन्म नगीना (बिजनौर, उत्तर प्रदेश) में 1913 ई0 में एक व्यापारी परिवार में हुआ था। 1929 ई0 में उन्होंने हिन्दी तथा उर्दू से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद हिन्दी में प्रभाकर (बी.ए.) तथा फिर कनखल से संस्कृत में प्रथम श्रेणी में प्रथमा परीक्षा उत्तीर्ण की। हिन्दी व संस्कृत के प्रति अनुराग होने के कारण उन्होंने धर्मग्रन्थों का भी अध्ययन किया। इससे उनके मन में अध्यात्म के बीज अंकुरित हो गये।
1936 में नगीना में अल्मोड़ा से लामा योगियों की परम्परा में दीक्षित एक संन्यासी आये। वे योग व प्राणायाम की क्रियाओं में बहुत प्रवीण थे। शिवचरण लाल जी उनसे प्रभावित होकर घर पर ही योगाभ्यास करने लगे। जब इस दिशा में रुचि कुछ अधिक बढ़ी, तो वे हर साल एक-दो महीने के लिए उनके पास अल्मोड़ा जाने लगे। 1944 तक वे उस संन्यासी के सम्पर्क में रहे। अध्यात्म के प्रति रुचि के कारण लोग उन्हें भी ‘स्वामी जी’ कहने लगे।
1944 में पिताजी के देहान्त के बाद दो साल तक उन्हें दुकान संभालनी पड़ी। इस दौरान वे संघ के सम्पर्क में आये और अनेक प्रशिक्षण वर्गों में भाग लिया। उस समय देश विभाजन की विभीषिका झेल रहा था। सब ओर हिन्दुओं की दुर्दशा थी। इसके बाद भी गांधी जी, नेहरू और उनके अनुयायी कांग्रेस वाले मुस्लिम तुष्टीकरण की दुर्नीति छोड़ने को तैयार नहीं थे। यह देखकर उनका हृदय पीड़ा से रो उठता था। अन्ततः उन्होंने देश, धर्म एवं समाज की सेवा के लिए 1947 में घर छोड़ दिया और प्रचारक बन गये।
प्रचारक के नाते उन्होंने उत्तर प्रदेश में अनेक स्थानों पर काम किया। 1948 में गांधी जी हत्या के बाद संघ पर लगे प्रतिबन्ध के समय सत्याग्रह कर वे जेल भी गये। वीर रस की लम्बी-लम्बी कविताएँ याद कर उन्हें उच्च स्वर में सुनाना उनका शौक था। संघ के शिविरों में रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। वहाँ उनकी कविताएँ बहुत रुचि से सुनी जाती थीं। जब वे हाथ उठाकर कविता बोलते थे, तो एक अद्भुत समाँ बँध जाता था।
1971 तक संघ के विभिन्न दायित्व निभाने के बाद उन्हें विश्व हिन्दू परिषद में भेजा गया। आठ वर्ष तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और फिर पूर्वी उ0प्र0 में उन्होंने विश्व हिन्दू परिषद के संगठन का गहन विस्तार किया। संगठन ने उन्हें जो काम दिया, समर्पित भाव से उन्होंने उसे पूरा किया। एकात्मता यात्रा तथा श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन में वे बहुत सक्रिय रहे।
जब उनकी अवस्था अधिक हो गयी, तो उन्हें अनेक रोगों ने घेर लिया। इस कारण उन्हें प्रवास में कष्ट होने लगा। अतः 1997 में प्रवास से विश्राम देकर पहले हरिद्वार और फिर श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के केन्द्र अयोध्या के कारसेवकपुरम् में उनके निवास की व्यवस्था की गयी। अयोध्या में ही पाँच जनवरी 2007 को ब्राह्ममुहूर्त में उनका शरीरान्त हुआ।
शिवचरण लाल जी ने श्री गुरुजी, दीनदयाल जी, स्वामी विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ, लोकमान्य तिलक, आद्य शंकराचार्य, स्वामी विद्यारण्य आदि के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था। अपने भाषण में वे इनके उद्धरण भी देते थे। उनके भाषणों का संग्रह ‘हिन्दू धर्म दर्शन’ के नाम से प्रकाशित हुआ है।