हस्तीमलजी का जन्म राजसमंद जिले में चंद्रभागा नदी के दक्षिण तट पर आमेट कस्बे में हुआ।वे मेधावी छात्र थे। 1964 में आमेट से हायर सेकेंडरी पास करने से लेकर 1969 में संस्कृत में एम.ए. करने तक प्रथम श्रेणी प्राप्त की. बी.ए. तक मेरिट स्कॉलशिप तथा एम.ए. में नेशनल स्कॉलशिप प्राप्त की। वे किशोरावस्था में ही संघ के स्वयंसेवक बन गए थे. हायर सेकंडरी के बाद उन्होंने नागपुर में संघ का तृतीय वर्ष प्रशिक्षण प्राप्त किया और प्रचारक हो गए। अगले एक दशक तक उदयपुर में संघ के विभिन्न उत्तरदायित्वों सहित जिला प्रचारक रहे. 1974 में वे जयपुर भेजे गए।आपातकाल के बाद अगले 23 वर्षों तक जयपुर में केंद्र बना रहा और विभाग प्रचारक, संभाग प्रचारक, सह प्रांत प्रचारक, प्रांत प्रचारक, सह क्षेत्र प्रचारक और क्षेत्र प्रचारक रहे।राष्ट्रीय स्तर पर आवश्यकता होने पर जुलाई, 2000 में सह बौद्धिक प्रमुख की जिम्मेदारी संभाली। 2004 से 2015 तक अखिल भारतीय संपर्क प्रमुख रहे. इसके बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी से जुड़े रहे. यह सुखद संयोग रहा कि हस्तीमलजी को ब्रह्मदेवजी, सोहन सिंहजी और जयदेवजी पाठक जैसे वरिष्ठ प्रचारकों के सान्निध्य में कार्य करने का अवसर मिला। ये तीनों कर्मठता-अनुशासन और निष्ठा का संगम थे। जिन्होंने हस्तीमलजी जैसे निष्ठावान प्रचारक का निर्माण किया।
आपातकाल के दौरान जयपुर के विभाग प्रचारक सोहन सिंहजी के साथ जयपुर के नगर प्रचारक हस्तीमलजी (सायं) भूमिगत आंदोलन का नेतृत्व करते हुए सक्रिय थे। पुलिस तत्परता से उन्हें खोज रही थी,जौहरी बाजार क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की बैठक होनी थी।दोनों प्रचारक मोटरसाइकिल से यथासमय बैठक स्थल पर पहुंचे, बाहर मोटरसाइकिल खड़ी करके रुके ही थे कि पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। दोनों को गिरफ्तार करके जयपुर सेंट्रल जेल में रखा गया। आपातकाल के भयावह माहौल ने संघ के अन्य कार्यकर्ताओं की तरह हस्तीमलजी को भी प्रभावित नहीं किया।यह कहना उपयुक्त होगा कि आपातकाल ने हस्तीमलजी को ईश्वरीय शक्ति की विजय के प्रति और आशान्वित कर दिया।
1976 में दीपावली पर उन्होंने एक कार्यकर्ता को लिखा, यह ज्योति पर्व हमारी संघर्ष भावना बलवती करे. अन्याय-दमन-शोषण और आतंक के घनघोर बादलों को चीर-चीर कर हम अपना मार्ग प्राप्त कर सकें और निर्भयतापूर्वक उस पर चल सकें. हस्तीमलजी ने उम्मीद प्रकट की, ‘भ्रम में न रहो, रात के बाद सुबह फिर होगी ही, सावधान अंधकार, सूरज फिर चमकेगा ही, इतराओ मत कुहरे, धुंध तो छंटेगी ही, भूलो मत मेरे शोक, आनंद फिर जागेगा ही.’
राजस्थान में लगभग चार दशक तक प्रचारक रहने के दौरान उन्होंने अनुशासन, अध्ययन, पारदर्शिता, दृढ़ निश्चय और गांव-गांव तक संघ कार्य विस्तार पर अधिक जोर दिया।कार्यकर्ताओं से घर-घर जीवंत संपर्क और सुख-दुख में संभाल को उन्होंने अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया। पाक्षिक पत्रिका पाथेय कण को प्रारंभ करने में मुख्य भूमिका उन्हीं की रही थी। राजस्थान के ज्यादातर स्थानों पर पहुंच रखने वाले सर्वाधिक प्रसार संख्या वाले इस पाक्षिक की विषय वस्तु से लेकर प्रबंधन तक की समस्त भूमिका की नींव उन्होंने ही रखवाई। शिक्षा का माध्यम संस्कृत होते हुए भी वे हिसाब-किताब में चार्टर्ड एकाउंटेंट की तरह सूक्ष्मतापूर्वक ध्यान रखते थे। एक बड़ा पाक्षिक बिना हानि के कैसे नियमित चलाया जा सकेगा, यह सूक्ष्म दृष्टि उन्होंने प्रारंभ से ही रखी। ज्ञान गंगा प्रकाशन के विकास-विस्तार में भी उन्हीं की योजना रही। राजनीति को लेकर भी वे दृढ़ विचारों के रहे,संघ की परंपरा के अनुसार किसी विषय पर राय देने तक ही उन्होंने अपने को सीमित रखा कुछेक अवसरों पर उन्हें राजनीति से प्रभावित करने की भी कोशिशें की गई।लेकिन वे अलिप्त बने रहे।संघ की दृष्टि और कार्यकर्ताओं के मूल भाव को उन्होंने सदैव ध्यान में रखा। कई बार ऐसे भी अवसर आए, जब भाजपा नेताओं की राय से स्वयंसेवक कार्यकर्ता सहमत नहीं हुए। ऐसी स्थिति में हस्तीमलजी ने कभी संघ को विवाद का विषय नहीं बनने दिया। उन्होंने स्वयंसेवकों की इच्छा को स्वतंत्र छोड़कर कार्य में विघ्न पैदा नहीं होने दिया।
संस्कृत के प्रति उनका विशेष अनुराग था, वे कहते थे – संस्कृत भाषा विज्ञान की भाषा और गणतीय भाषा है. इसकी सूत्र पद्धति अनोखी है। भारतीयों का परिचय संस्कृत में निहित ज्ञान और विज्ञान से ही है, एक दिन संस्कृत का डंका विश्व भर में बजेगा।
उनके साथ लंबे समय तक संघ कार्य करने वाले पाथेय कण के पूर्व संपादक कन्हैयालालजी चतुर्वेदी बताते हैं कि हस्तीमलजी कुशल संगठक थे।पाथेय कण के प्रबंध संपादक माणिकचंद्रजी के अनुसार हस्तीमलजी ने प्रचारक रहते हुए अध्ययन जारी रखा । स्वयंसेवकों को भी वे सतत अध्ययन के लिए प्रेरित करते रहते थे। हस्तीमलजी अक्सर बताते थे कि देश और समाज पर जब भी कभी कोई संकट आया, संघ का स्वयंसेवक सबसे पहले जाकर खड़ा हुआ। हमसे किसी के कितने भी मतभेद हो सकते हैं, लेकिन देश के लिए संघ ने हमेशा नि:स्वार्थ काम किया. कोरोना वैश्विक आपदा की घड़ी में संघ के स्वयंसेवकों ने सेवा की मिसाल कायम की है। सेवा के कार्य अभी भी जारी हैं। संघ ने व्यक्ति को समाज के लिए, देश के लिए जीने वाला बनने के संस्कार दिए हैं. इसीलिए भारतीय केवल मानवता का नहीं, अपितु पूरी सृष्टि का चिंतन करते हैं, भारत का व्यक्ति जहां भी गया, उसने शांति का संदेश दिया न अन्याय किया, न अत्याचार किया, न अशांति की, न मां-बहनों का अपमान किया सबका सम्मान किया. दुनिया के अधिकांश देश भारत का आभार मानते हैं जिसने दुनिया को सभ्यता दी और जीवन जीना सिखाया।
हस्तीमलजी का कहना था कि संघ को सत्ता की अपेक्षा नहीं है और सत्ता से विरोध भी नहीं है, संघ पर प्रारंभ से ही आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे हैं. लेकिन संघ ने चिंता नहीं की, बहुत अधिक उत्तर नहीं दिया. केवल संगठन खड़ा किया, यह संगठन ही उसका उत्तर देगा। संघ को किसी के प्रति न ईर्ष्या है, न द्वेष है। संघ का विश्वास है कि आज नहीं तो कल, संघ के विरोधी संघ को समझेंगे।संघ व्यक्तिवादी नहीं है. उसने भगवा ध्वज से प्रेरणा लेते हुए उसे अपना गुरू माना है। भगवा ध्वज संघ का बनाया हुआ नहीं है, यह रंग संतों का है, बलिदानियों का है, उगते हुए सूर्य का है। संघ का कार्य समाज जागरण का है, संघ को समझना है तो संघ के निकट आकर देखें। हस्तीमलजी कहते थे कि संघ के पास 97 वर्षों के अनुभव की पूंजी है. 97 वर्षों में संघ ने हिन्दू समाज को एक मंच पर लाने का काम किया है। संघ के प्रति पूरी दुनिया के लोगों का विश्वास बढ़ा है, जिस शिखर पर संघ विद्यमान है उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ स्वयंसेवकों का परिश्रम है । स्वयंसेवकों को पता है कि क्या करना है और क्या नहीं, जो काम करना होता है वह स्वयंसेवक कर देते हैं. स्वयंसेवकों को न भूख की चिंता होती है, न ही सुख की चाह होती है. इनके लिए न दिन होता है न रात, पूरा समय सेवा भाव के लिए समर्पित होता है. वे मानते हैं कि भारत माता को पुनः परमवैभव पर पहुंचाने के लिए सभी स्वयंसेवकों को मंथन करना होगा. प्रत्येक स्वयंसेवक का कर्तव्य है कि वह अपने साथ चार स्वयंसेवक और बनाए. जिम्मेदारियां दे, उनसे विनम्र आग्रह करे कि वे राष्ट्र के लिए भारतीय संस्कृति के लिए चिंतन करें ।
आज प्रातः हस्तीमल जी ने अपनी जीवन यात्रा को विराम दे दिया।
कोटि कोटि नमन।