विश्व को भारत की परंपराओं से प्राप्त ज्ञान की आवश्यकता है
पुणे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि वर्तमान में विश्व विभिन्न मार्गों पर लड़खड़ा रहा है, रुका हुआ है. उसे भारत की परंपराओं से प्राप्त ज्ञान की आवश्यकता है. वह हमारे ज्ञान, भक्ति और कर्म के त्रिवेणी संगम से दिखा सकते हैं. वह दृष्टि देने का कार्य डॉ. देगलूरकर के ग्रंथ के माध्यम से हुआ है. ‘अथातो बिंब जिज्ञासा’ ग्रंथ विवेक जगाने वाला ग्रंथ है.
मंदिर स्थापत्य तथा मूर्ति विज्ञान के वरिष्ठ शोधकर्ता डॉ. गो. बं. देगलूरकर द्वारा संशोधित और लिखित मराठी पुस्तक ‘अथातो बिंब जिज्ञासा’ का विमोचन शनिवार को सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने किया. यह ग्रंथ स्नेहल प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. बालशिक्षण संस्था के सभागार में सम्पन्न कार्यक्रम में डॉ. गो. बं. देगलूरकर, अनुवादक डॉ. आशुतोष बापट तथा स्नेहल प्रकाशन के निदेशक रवींद्र घाटपांडे उपस्थित थे.
डॉ. देगलूरकर को आधुनिक युग में ऋषि परंपरा का वाहक बताते हुए सरसंघचालक जी ने कहा कि हमारे यहां जो मूर्ति पूजा है, वह साकार के माध्यम से निराकार का संधान करने वाली है. हर मूर्ति बनाने के पीछे विज्ञान है. मूर्ति भावयुक्त होती है. वह केवल बुद्धि का विलास नहीं है. उसके पीछे अनुभूति है. लेकिन उसके लिए दृष्टि आवश्यक है, क्योंकि दृष्टि के अनुसार दृश्य दिखता है. इसका अनुभव हम सब कर रहे हैं. दृष्टि पैदा करने हेतु आस्था चाहिए. वह विवेचक होनी चाहिए. भौतिकवादी नजर दृष्टि नहीं होती, इसलिए दृष्टि परिश्रम और अध्ययन से प्राप्त करनी पड़ती है.
उन्होंने कहा कि डॉक्टर देगलूरकर का ग्रंथ राष्ट्रजीवन की ओर तथा ज्ञान की परम्परा की ओर देखने के लिए सकारात्मक दृष्टि देने वाला और विवेक जगाने वाला ग्रंथ है. ज्ञान और कर्म के दो पंख भक्ति मार्ग की ओर ले जाने हेतु उपयुक्त साबित होंगे.
डॉ. देगलूरकर ने फोटो के माध्यम से मूर्ति विज्ञान का महत्व रेखांकित किया. विट्ठल, वैकुंठ, चतुष्पाद सदाशिव, कुंडलिनी, गणेश जैसी विशेषता धारण करने वाली मूर्तियों के माध्यम से उन्होंने संक्षिप्त में ‘अथातो बिंब जिज्ञासा’ ग्रंथ का सार बताया. उन्होंने कहा कि देवता मूर्ति तथा मूर्ति विज्ञान हिन्दू धर्म का व्यवच्छेदक लक्षण है. मूर्तियों के वैज्ञानिक अध्ययन व आकलन के बिना हिन्दू धर्म को पूरी तरह से समझा नहीं जा सकता. इसलिए मूर्तियों को समझिए ताकि हिन्दू धर्म का रहस्य समझा जा सके.
डॉ. आशुतोष बापट ने कहा कि देगलूरकर सर मूर्ति विज्ञान के चलते फिरते ज्ञानकोष हैं. वह मूर्ति विज्ञान से इतने एकाकार हो गए हैं कि देगलूरकर सर और मूर्ति विज्ञान का अद्वैत हो चुका है. उनके सान्निध्य और मार्गदर्शन में अपने ज्ञान की क्षितिज फैलते हुए अनुभव किया है और समृद्ध होता गया हूं.
ग्रंथ के निर्माण में योगदान देने वाले मोहन थत्ते, रवींद्र देव, शेफाली वैद्य, डॅा. अंबरीष खरे, अविनाश चाफेकर, पराग पुरंदरे, विनिता देशपांडे आदि को सम्मानित किया गया.