हिन्दू तत्व पुरोधा डाॅ.भीमराव अंबेडकर के जन्म दिवस पर विशेष
वास्तव में डाॅ.भीमराव अंबेडकर हिन्दू तत्व के पुरोधा, सामाजिक समरसता के अग्रदूत, प्रख्यात समाज-सुधारक, विधिवेता एवं भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार थे। डाॅ. अंबेडकर जी ने अपना जीवन हिन्दू समाज के पिछडे., बंचित और दलित बंधुओं के उत्थान में लगा दिया। उनका जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्यप्रदेश के छोटे से गांव महू में महार परिवार में हुआ। वे पिता रामजी मालोजी सकपाल और माता भीमाबाई की 14वीं संतान थे। वे जब तीन साल के थे तब ही उन पर से मां का हाथ उठ गया। मां की मौत के बाद उनकी चाची ने अंबेडकर जी का लालन-पालन किया।
हिन्दू विचारों से ओतप्रोत पिता रामजी सकपाल ने अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के साथ धर्मग्रंथों विशेकर रामायण और महाभारत के अध्ययन पर जोर दिया। इसी का परिणाम था कि प्रतिभा सम्पन्न बालक भीमराव उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं मूल्य से जुडे. रहे। भीमराव को विद्यार्थी जीवन में छूआछूत, भेदभाव आदि भयंकर सामना करना पडा। कहते हैं कि वे जिस विद्यालय में पढते थे उन्हें अलग बैठाया जाता था। उनके लिए पेयलज के लिए भी अलग से व्यवस्था थी। भीमराव द्वारा अपनी जाति बताने पर बैल-गाडी वाले ने भीमराव को बीच रास्ते में ही बैलगाडी से उतार दिया। जातिगत भेदभाव से जुडी घटनाओं की एक लम्बी श्रंखला है जिन्हें भीमराव को सहना पडा। जब वे विद्यार्थी थे तब भीमराव पर एक ब्राह्मण शिक्षक श्री आम्बावाडेकर की विशेष कृपा रही। जब भीमराव समाज में व्याप्त छूआछूत का सामना कर रहा थे तब इसी शिक्षक ने उन्हें संबल प्रदान किया। शिक्षक ने भीमराव को अपना उपनाम दिया। इसके बाद से ही बाबा साहेब ने अपने नाम के पीछे सकपाल की जगह अंबेडकर लिखना शुरू कर दिया और इसी नाम से वे देश-दुनिया में जाने-पहचाने गये।
भयंकर कष्ट सहने के बाद भी दृढ. निश्चयी भीमराव टूटे नहीं और भारत से छूआछूत को जड से खत्म करने का संकल्प लिया। उन्होंने अपने संकल्प को जीवनपर्यंत जीया। उन्होंने देश-विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद 1924 में निर्बलों, निर्धनों व बंचित वर्ग के उत्थान के लिए ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ का गठन किया और अपने संकल्प सिद्धि के लिए संघर्ष का रास्ता प्रारंभ किया। संघर्ष स्वरूप 1926 में पहाड. के चावदार तालाब को पिछडे., बंचित और निर्धन समाज बंधुओं के लिए भी खुलवाया। 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश करने की बात को लेकर सत्याग्रह किया। 8 अगस्त 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन में अंबेडकर ने अपने राजनीतिक और सामाजिक समरसता संबंधि विचार को देश-दुनिया के सामने रखा। भारत की स्वतंत्रता के बाद उन्हें प्रथम कानून मंत्री बनाया गया। 29 अगस्त 1947 को भारतीय संविधान के निर्माण के लिए बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। समिति द्वारा निर्मित संविधान को संविधान सभा ने 26 नवम्बर 1949 को अपना लिया।
अंबेडकर देश में व्याप्त छूआछूत, जातिगत भेद आदि से बहुत दुखी रहते थे। एक बार जब उन्होंने धर्म परिवर्तन की बात कही तो देश के बाहरी मजहबी नेताओं ने उन पर ईसाई और इस्लाम पंथ अपनाने का दबाव बनाया। डाॅ.अंबेडकर अपने ही बंधुओं द्वारा भेदभाव किये जाने से कुंठित जरूर थे लेकिन बाहरी मजहब स्वीकार करना उन्हें पसंद नहीं था। वे बाहरी मजहबों को स्वीकार करना राष्ट-द्रोह का काम मानते थे। इसी कारण उन्होंने 14 अक्टूबर 1956 को नागपुर में औपचारिक सार्वजनिक समारोह आयोजित किया और अपनी पत्नी और अनुयायियों के साथ हिन्दुस्तान में ही जन्मे बौद्ध मत की दीक्षा ली। ऐसा कर उन्होंने देश पर बहुत बडा उपकार का काम किया। उन्होंने अपने अनुयायियों को संदेश दिया किया कि ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो।’ जीवन के अंतिम दिनों में अंबेडकर जी को मधुमेह आदि रोगों ने जकड लिया। 6 दिसम्बर 1956 को उन्होंने अपनी देह त्याग दी।
-गजानंद गुरु, जयपुर