ऐसा भी क्या था 480 शब्दों में…

thस्वामी विवेकानन्द ने 11 सितम्बर 1893 को शिकागो की सर्वधर्मसभा में खचाखच भरे सभागार में एक संक्षिप्त व्याख्यान दिया। उसे सुनकर सब लोगों ने खडे़ हो तालियों की गड़गड़ाहट से आकाश गुंजा दिया और भाषण की समाप्ति के बाद विवेकानन्द को स्पर्श करने के लिए दौड़ पडे़। 480 शब्दों के उस छोटे से भाषण में ऐसा क्या था, जिसके कारण वह अमेरिकी लोगों के मन को जीतकर विश्वविख्यात हो गए? इस व्याख्यान में से निम्नलिखित चार महत्त्वपूर्ण संदेश उभरते दिखाई देते हैं:

1- स्वामीजी ने ‘लेडिज ऐंड जेंटलमैन’ के स्थान पर ‘अमेरिकावासी बहनो व भाइयों’ के संबोधन से जब भाषण प्रारम्भ किया तो सब लोग हतप्रभ हो खुशी से झूम उठे और विवेकानन्द के दिव्य आत्मीय प्रेम के आलिंगन में आबद्ध हो गए। इस सम्बोधन के माध्यम से विवेकानन्द यह संदेश दे रहे थे कि भारतीय संस्कृति विश्व को एक परिवार मानती है (उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्),बाजार नहीं। विश्व के सभी लोगों के साथ हमारा पारिवारिक भाई-बहन का आत्मीय रिश्ता है। यही वह भाव दृष्टि है, जिसके आधार पर विश्व भाईचारा एवं विश्व समन्वय की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। अमेरिकावासियों को तब सचमुच ही लगा था कि भारत का यह युवा संन्यासी हमें पराया नहीं अपना ही मानता हैं।
 
2-व्याख्यान के प्रारंभ में ही विवेकानन्द ने अपने देश व समाज का परिचय दिया हैं। वह बोले कि मैं विश्व की प्राचीनतम संन्यासी परम्परा, समस्त धर्मों की जननी भारतभूमि और सभी वर्गों-सम्प्रदायों के हिन्दुओं की ओर से आपका धन्यवाद करता हूँ। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी हूँ, जिसने विश्व को सहनशीलता एवं सार्वभौमिकता का पाठ पढ़ाया है। मैं उस देश का प्रतिनिधि हूँ, जिसने अत्याचारों से पीड़ित-प्रताड़ित-निष्कासित यहूदियों व पारसियों को स्नेह व सम्मान के साथ शरण दी। इस परिचय के माध्यम से विवेकानन्द ने हिन्दू धर्म, समाज और संस्कृति के स्वत्त्व व स्वाभिमान को जगाकर विश्व के सामने उसके सर्वसमावेशक, सार्वभौमिक, सर्वकल्याणक वास्तविक स्वरूप को प्रस्थापित किया है। इसी आधारसूत्र को पकड़कर हम संघर्ष, शोषण, उत्पीड़न तथा अन्याय व अत्याचार से मुक्त सर्वमंगलकारी विश्व रचना की दिशा मे आगे बढ़ सकते हैं। इसीलिए तो महर्षि अरविन्द ने कहा था कि विवेकानन्द का पश्चिम में जाना विश्व के सामने पहला जीता-जागता संदेश था कि भारत जाग उठा है न केवल जीवित रहने के लिए बल्कि विजयी होने के लिए।
3-इसके बाद विवेकानन्द ने सर्वधर्मसमन्वय के आधार-सिद्धान्त के रूप में निम्नलिखित श्लोक का पाठ किया-
रूचिनां वैचित्र्यात् त्रजुकुटिल नानापथजुषाम्।
नणाम् एको गम्यस्त्वमसि पयसाम् अर्णव इव।।
इसका अर्थ है कि जैसे विभिन्न नदियां भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढे़-मेढे़ अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं। इसी बात को गीता ने इस रूप में कहा है कि भिन्न-भिन्न मार्गों से चलकर मेरी ओर आने वाले सभी आराधक अन्ततः मुझे ही प्राप्त होते हैं। इस प्रकार विवेकानन्द का संदेश है कि सर्वधर्मसमन्वय के लिए प्राथमिक आवश्यकता यह है कि सभी धर्मों के प्रति समान आदर भाव रखा जाए और किसी भी धर्म को हीन बताकर उसके अनुयायियों का जोर-जबर्दस्ती या छलकपट से मतान्तरण न किया जाए।
4-अपने व्याख्यान के अंत में विवेकानन्द ने विश्वास व्यक्त करते हुए कहा कि मुझे पूर्ण आशा है कि आज प्रातःकाल इस सम्मेलन के स्वागत में जो घंटियां बजाई गई हैं वे समस्त प्रकार की कट्टरता, तलवार या कलम से पहुँचाई जाने वाली यातनाओं तथा विभिन्न लोगों के मध्य पनपी शतुत्रापूर्ण भावनाओं की समाप्ति की सूचना देने वाली ध्वनियां साबित होंगी।
आइए, विवेकानन्द के इन अमर संदेशों को समझकर हम उन्हें साकार करने की दिशा में प्रयत्नशील हों।
-डॉ. बजरंगलाल गुप्ता
लेखक http://paricharcha.com वेबसाइट के संपादक हैं

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